Saturday, December 9, 2017

आत्मिक लगाव

#शब्द_मीमाँसा #19

शब्द- आत्मीय लगाव 

शब्द संप्रेषक - नवनीत जी 

दिनाँक - 10/12/2017 

एक लंबा अरसा गुजर गया था शिव से मिले हुए । कुछ अजीब सी बेचैनी भी थी मिलने की और यह ख्याल भी कि इतने व्यस्त महादेव से मात्र मिलने ही जाना अच्छा नही है उनके समय को बेजा नष्ट करना । खोजते खोजते मिल ही गया बहाना मिलने का शिव से । आज फिर से उनकी शरण में पहुँचा मुझे देखकर शिव मुस्करा रहे थे । हमने अभिवादन किया ; उन्होंने भी बिहसते हुए स्वीकार किया और शिव बोले - कैसे आना हुआ हिमांशु इतने दिनों बाद हमारी याद आई ?

हमने कहा - हे शिव ! हमने सच में कभी आपको याद नहीं किया क्योंकि आप हमसे कभी बिसरे ही नहीं जो याद करने की आवश्यकता पड़े ।

महादेव - मंद-मंद मुस्कान के साथ बोले सुंदर है आज कल कुछ ज्यादा वाक्पटु नहीं हो गया है तू ?

मैं बोला - जो भी हूँ आपकी कृपा से हूँ । बिना आपके न मैं हूँ और न हम ।

नीलकंठ ने कहा - अच्छा बोल तू जिस काम से आया है ।

मैंने कहा - हे शिव ! प्राथमिक उद्देश्य तो आपसे मिलना था उसके लिए एक बहाना खोजा है जिसका नाम है आत्मिक लगाव । वैसे ये "आत्मिक लगाव" होता क्या है ?

गंगाधर बोले - तेरे पैर क्यों भीगे हुए है ? बरसात तो हुई नहीं , फिर कहां रास्ते में भिगो लिया किसी नदी या तालाब में घुस गया था क्या ?

मैं बोला - अरे नहीं भगवन वो तो आ रहा था तो रात में ओस पड़ी हुई थी घासों पर उसी से भीग गया । पर आप आत्मिक लगाव क्या होता है बताइये न ये होता कैसे है ?

शिव बोले - बस इसी ओस की तरह होता है आत्मिक लगाव । जैसे किसी ने आज तक आसमान से गिरती हुई ओस की बूंदों को नहीं देखा होगा पर हरी मखमली पत्तियों के तृणों पर ओस की बूदें विद्यमान दर्शित होती हैं । ठीक ऐसे ही एक भावना स्वमेव किसी के हृदय में उत्पन्न हो जाती है किसी के प्रति न तो वह उसका कारण जान पाता है और न ही वो कार्य जिससे वो उत्पन्न होती है । इसे ही नैसर्गिक प्रेम से भी संज्ञापित किया है साहित्य ने ।

मैंने भाव विह्वल शिव को देखते हुए पूछा - क्या सामने वाले व्यक्ति के कोई ऐसे कार्यकलाप जिससे दूसरे के मन में उद्दीपन उत्पन्न हो ऐसा लक्षित करके किया गया हो उसके फलस्वरूप भी उत्पन्न होने पर वो "आत्मिक लगाव" होगा ।

शिव बोले - नहीं पगले । आत्मिक लगाव यदि किसी नकारात्मक आशय से उद्दीपन देकर उत्पन्न किया जाता है तो वो कहाँ से नैसर्गिक अथवा आत्मिक रह गया ? आत्मिक का अर्थ तुझे पता है न कि ये आत्म शब्द से बना है और इसका अर्थ होता है स्वयं अर्थात जो प्राकृतिक रूप से स्वयं उत्पन्न होता है व्यक्ति के हृदय में यथा ममता, वात्सल्य, प्रेम आदि ।

अगर कोई लगाव उत्पन्न करने के लिए असम्यक असर, दुर्व्यापदेशन, झूठ, भूल, कपट अथवा स्वार्थ आदि का प्रयोग किया जाता है तो वह आत्मिक कहाँ रह गया वह तो वाह्य उद्दीपन द्वारा उत्पन्न हो गया ।

मैंने शिव को धन्यवाद ज्ञापित किया और पुनः वापस लौट पड़ा अपने घर । अब तो शिव से मिलाप भी हो गया और बेचैनी भी समाप्त हो गयी ।

Monday, October 9, 2017

राक्षस

#शब्द_मीमांसा 18

शब्द -राक्षस

शब्द प्रेरणा -सोशल मीडिया

दिनाँक - 08/10/2017

पिछले कुछ दिनों से एक शब्द काफी प्रचलन में रहा है मुख्यतः विजयादशमी के उपरांत रावण का महिमामंडन करते हुए उसे रक्ष संस्कृति का जनक आदि बताना ।

राक्षस रजोगुण का द्वितीय विभाग है उसके छः विभागों में से । जैसा कि आप पूर्व में पढ़ चुके हैं गीता में श्रीभगवान ने कहा है जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाले के स्वभाव का है, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ।

चरक संहिता के पंचम अध्याय में राक्षस को राजस गुणी बताते हुए बताया गया है कि जो असहनशील, अकारण कुपित होने वाला, छिद्र अर्थात शत्रु के कमजोर स्थान पर वार करने वाला, क्रूर, भोजन में अत्यधिक रुचि लेने वाला, मांस का बहुत प्यारा, खूब सोने वाला और परिश्रम करने वाला , इर्ष्याशील हो उसे "राक्षस" समझें ।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -
मानहिं मातु पिता नहिं देवा , साधुन ते करवावहि सेवा ।
जिन्ह के यह आचरन भवानी तेहि जानहु निशिचर खल कामी ।।

यह भी ध्यातव्य है कि दैत्य, असुर और राक्षस अलग अलग हैं उनके गुण तथा उत्पत्ति में भी अंतर है । अब बात करते हैं राक्षसों की उत्पत्ति और इनके वंशावली की ।

बाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण में भगवान राम की जिज्ञासा पर महर्षि अगस्त्य राक्षसों की उत्पत्ति की कथा का वर्णन करते हैं -

ब्रह्मा जी ने मानवों की रक्षा के लिए कुछ प्राणियों का निर्माण किया और कहा जाओ तुम मानवों की यत्नपूर्वक रक्षा करो । उनमें से कुछ क्षुधा पीड़ित प्राणियों ने कहा "रक्षाम:" अर्थात हम रक्षा करते हैं जिन्हें राक्षस नाम दिया गया कुछ ने कहा "यक्षाम:" अर्थात हम उत्तरोत्तर वृद्धि करते हैंउन्हेँ ब्रह्मा जी ने यक्ष नाम दिया ।

इन राक्षसों में दो भाई हेति तथा प्रहेति हुए दोनो मधु कैटभ की तरह शत्रुनाशकारी थे । प्रहेति धार्मिक होने के कारण तप करने चला गया । किन्तु हेति अपने विवाह का प्रयत्न करने लगा ।

हेति इस प्रकार विवाह की इच्छा लेकर स्वयं ही काल के सम्मुख पहुंच गया और उससे प्रार्थना की तथा काल की बहन "भया" जो कि महाडरावनी थी उससे विवाह कर लिया तथा "विद्युत्केश" नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । विद्युत्केश का विवाह सन्ध्या की पुत्री "सालकटंकटा" से हुआ । उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सुकेश था किंतु जन्म होते ही पुत्र को अकेला छोड़कर वह पुनः सम्भोग की इच्छा से अपने पति विद्युत्केश के पास पहुँच गयी । बालक अकेला पड़ा भूख आदि के कारण रोने लगा तो वहां से गुजरते हुए देवी पार्वती के कहने पर महादेव ने सुकेश को तुंरन्त उसकी माँ की उम्र का कर दिया तथा उसे आकाश मार्ग से गमन करने के लिए एक विमान भी दिया और माता पार्वती ने वरदान दिया कि राक्षसियों के गर्भ धारण करते ह् सन्तान जन्म लेगी तथा जन्म लेते ही वो अपनी माता की उम्र की हो जाएगी ।

सुकेश का विवाह ग्रामणी नामक गन्धर्व की कन्या देववती से हुआ जिससे तीन संताने क्रमशः माल्यवान, सुमाली तथा माली का जन्म हुआ । तीनों ने मेरु पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया तथा अजेय होने का वरदान प्राप्त किया । अजेय होने के उपरांत इन्होंने देवों, असुरों,मानवो तथा ऋषियों को सताना प्रारम्भ कर दिया । उनकी प्रार्थना पर विश्वकर्मा ने त्रिकूट पर्वत पर लंका नामक नगरी का निर्माण किया । इन तीनों का विवाह नर्मदा नामक एक गन्धरवी की तीन कन्याओं से हुआ ।

माल्यवान की पत्नी का नाम सुंदरी था जिससे बज्रमुष्टि, विरुपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त तथा उन्मत्त नामक सात पुत्रो और अनला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई ।

सुमाली की पत्नी का नाम केतुमती था जिससे प्रहस्त, कम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्व, संह्रादि, प्रघस और भासकर्ण नामक पुत्रो और कुंभीनशी, कैकसी, राका और पुष्पोत्कटा नामक पुत्रियों का जन्म हुआ ।

माली का विवाह वसुधा नामक गन्धरवी से हुआ जिसके अनल, अनिल, हर तथा सम्पाती नामक चार पुत्र हुए जो आगे चलकर विभीषण के मंत्री बने ।

इनके अत्यचारों से पीड़ित होकर सारे देवगण प्राणियों सहित भगवान शिव के पास गए इन्होंने कहा ये राक्षस मुझसे अवध्य है किंतु भगवान विष्णु इन्हें मार सकते हैं उनसे अनुनय कीजिये । एक घोर युद्ध में भगवान विष्णु ने समस्त राक्षसों को पाताल खदेड़ दिया और माली का वध किया । सुमाली को राजा बनाकर राक्षस गण सही अवसर की प्रतीक्षा करने लगे ।

भगवान विष्णु द्वारा रसातल खदेड़े जाने के कुछ समय के उपरांत सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ जो कि कमल त्यागे हुए लक्ष्मी की तरह सुंदर थी को लेकर पृथ्वी लोक पर भ्रमण करने निकला , भ्रमण करते हुए उसने देखा कि अत्यंत तेजस्वी कुबेर पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर अपने पिता पुलत्स्य पुत्र विश्रवा से मिलने आये थे । वह यह सब देखकर पुनः रसातल लौट गया और विचार करने लगा कि यदि मेरी पुत्री का विवाह विश्रवा से हो जाये और उससे पुत्रजन्म हो तो वे भी कुबेर की तरह ही तेजस्वी होंगे । यह विचार करके उसने अपनी पुत्री कैकसी को विश्रवा के पास जाने के लिए प्रेरित किया ।

कैकसी जब मुनि विश्रवा के पास पहुँची तो वे सन्ध्या (प्रदोष काल) के समय अग्निष्टोम कर रहे थे । कैकसी उनके सामने खड़ी हो गयी और अपने पैरों की तरफ देखते हुए पैर के अंगूठे से जमीन को कुरेदने लगी । जब विश्रवा ने उसके बारे में और उसके आने का प्रयोजन पूछा तो उसने कहा कि वो सुमाली की पुत्री कैकसी है तथा वो अपना हेतु स्वयं नहीं बताएगी उसे वे अपनी तपश्चर्या द्वारा स्वयं ज्ञात कर लें । विश्रवा ने ध्यान लगाकर उसका हेतुक जाना और बोले हे महाभागे ! मुझे ज्ञात हो गया है कि तुम पुत्र प्राप्ति हेतु मेरे पास आई हो किन्तु प्रदोष काल में आने के कारण तुम्हारे पुत्र बड़े क्रूरकर्मा होंगे, उन भयंकर राक्षसों की सूरत भी भयानक होगी और उनकी प्रीति भी क्रूरकर्मा बन्धु बांधवो से होगी । इसपर कैकसी बोली हे भगवन मुझे आपसे ऐसे दुराचारी पुत्र नहीं चाहिए मुझपर कृपा कीजिये ।  ऐसा सुनकर विश्रवा बोले हे शुभनने! अच्छा तेरा अंतिम पुत्र मेरे वंशानुरूप धर्मात्मा होगा ।

इस प्रकार कुछ काल बाद उस कन्या ने बड़ा भयंकर और वीभत्स राक्षस को जन्म दिया उसके दस सिर थे और बड़े बड़े दांत थे , उसके शरीर का रंग काला तथा आकर पहाड़ की तरह था । उसके होंठ लाल थे तथा बीस भुजाएं थी । उसका मुंह बड़ा तथा बाल चमकीले थे । उसके जन्म लेते ही अनेक अपशकुन हुए । उसके पितामह ने उसका नाम दशानन रखा ।

तदन्तर भीमकाय कुम्भकर्ण का जन्म हुआ उसके अंतर पर बुरी सूरत वाली सूर्पणखा का जन्म हुआ । उसके उपरांत धर्मात्मा विभीषण का जन्म हुआ जिनके जन्म पर अनेक शुभ संकेत हुए ।

तदन्तर कैकसी के द्वारा प्रेरित होने पर कुबेर की तरह ऐश्वर्य प्रप्त करने हेतु तीनो भाइयो ने गोकर्ण आश्रम में कठोर तप किया और ब्रह्मा जी से लम्बी आयु और अजेयता प्राप्त की । विश्रवा के कहने पर कुबेर ने रावण को लंका दे दी और स्वयं जाकर कैलाश पर्वत पर पुरी बसाकर रहने लगे । इस प्रकार लंका में राक्षसों  की पुनः स्थापना हुई ।

रावण का विवाह मय दानव और हेमा नाक की अप्सरा की पुत्री मंदोदरी से हुआ , कुम्भकर्ण का पाणिग्रहण वैरोचन की पौत्री तथा बलि की पुत्री बज्रज्वाला से हुआ और गन्धर्व राज शैलूष की पुत्री सरमा का विवाह विभीषण से हुआ ।

Thursday, September 28, 2017

अहंकार

#शब्द_मीमांसा #17

शब्द - अहंकार

शब्द संप्रेषक - मनीष जैन

दिनाँक - 28/09/2017

हमारी संस्कृति कहा गया है दान लेने वाला बड़ा होता है और देने वाला छोटा । दान पैर छूकर आदाता को दिया जाता है । हमारे प्राचीन ग्रन्थों कवि ने स्वयं को बार बार मन्दमति और अज्ञानी कहा है जबकि उसके शब्दों की गूढ़ता स्वयं को बड़ा विद्वान समझने वाले भी नहीं समझ पाते है । श्रीभगवान ने अकर्ता होकर कर्म करने की सलाह दी है । इन सब का एक मात्र कारण है कि व्यक्ति को स्वयं के कार्यों पर अहंकार न हो जाये और लोक कल्याण में बाधा उत्पन्न कर दे । तुलसीदास जी ने कहा है -

क्रोध पाप का मूल है । क्रोध मूल अभिमान ।।

अर्थात जब व्यक्ति में अभिमान आ जाता है तो उसे क्रोध आता है और क्रोध पाप का कारण बनता है अर्थात अहंकार व्यक्ति को पतित कर देता है । अहंकारी व्यक्ति की गति रावण जैसी होती है -

एक लख पूत सवालख नाती । ता रावण घर दिया न बाती ।।

सिर्फ रावण ही नहीं अपितु जब द्वारिका के लोगों को अहंकार हुआ अपनी अपराजेयता का तो उनकी बुद्धि भ्रष्ट हुई और उनका भी नाश हो गया जोकि स्वयं श्रीभगवान के बन्धु-बांधव और प्रजा थे ।

अहंकार शब्द की उत्पत्ति अहं शब्द से और अहं शब्द की उत्पत्ति "अह्" शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है "प्रशंसा " और अहं शब्द का अर्थ होता है मैं अथवा स्व अर्थात जब व्यक्ति स्वयं के आकार को ही विश्व मनाने लगता है यानी जो कुछ है वो स्वयं ही है तो का जाता है कि उसे अहंकार हो गया है ।

दर्शन के अनुसार चित्त का एक घटक योग है अहंकार । मन, बुद्धि तथा अहंकार से चित्त बनाता है । अहंकार द्वारा अहं का ज्ञान होता है । अहंकार तीन प्रकार का होता है सात्विक, रजस तथा तामस ।

सात्विक अहंकार से अधिष्ठाता देवता और मन की उत्पत्ति हुई है । रजस से दस इंद्रियों (पांच कर्मेन्द्रियों तथा पांच ज्ञानेन्द्रियाँ) की उत्पत्ति हुई है तथा तामस अहंकार से पांच सूक्ष्म महाभूतों की उत्पत्ति हुई है । अर्थात जब व्यक्ति को अपने अधिष्ठाता पर अभिमान हो तो वह सात्विक अहंकार कहलाता है तथा जब व्यक्ति को अपने इंद्रियों पर घमण्ड हो तो उसे रजस कहते हैं एवं यदि व्यक्ति अन्य भौतिक वस्तुओं का अहंकार हो जाये तो उसे तामस अहंकार की संज्ञा दी गई है ।

वेदांत दर्शन में अहंकार को एक अभिमानात्मक वृति माना गया है । यहां अहंकार शरीरादि विषयो के मिथ्या ज्ञान को कहा गया है । वैष्णव दर्शन के व्यूह सिद्धांत में अनिरुद्ध को अहंकार कहा गया है ।

संख्या दर्शन में दो मूल तत्व माने गए जो एक दूसरे से अलग होते हैं  जिनमें प्रथम है पुरुष अर्थात आत्मा और द्वितीय है प्रकृति । प्रकृति के तीन गुण होते है - सत्व, रज तथा तम । प्रलयकाल में ये तीनों सन्तुलित होते हैं किन्तु जब पुरुष की उपस्थिति में इनका सन्तुलन भंग होता है तो प्रकृति से बुध्दि (महान) का जन्म होता है जो सोचने वाला कार्य करती है जिसमें सत्व की मात्रा विशेष होती है । बुद्धि से अहंकार का जन्म होता है । अहंकार से मनस तथा पांच ज्ञानेन्द्रियो की उत्पत्ति होतीहै फिर जिनसे पांच कर्मेन्द्रियों और पांच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है । अर्थात अहंकार से आसक्ति हमारी इंद्रियों में स्थित हो जाती है ।

Wednesday, September 27, 2017

दुःख

#शब्द_मीमांसा 16

शब्द - दुःख

शब्द संप्रेषक - राज चौकसे जी

पाशुपत शैव सम्प्रदाय में मुख्य पांच तत्व हैं -पति (कारण), पशु (कार्य), योगाभ्यास, विधि तथा दुःखान्त अर्थात दुःखों का अंत जिसे मोक्ष भी कहा जाता है ।

बौद्ध मत में भी भगवान बुद्ध कहते हैं संसार दुःख से भरा हुआ है , दुःखों की समाप्ति ही निर्वाण है। इसके लिए उन्होंने अष्टांगिक मार्ग की विरचना की जिसे उन्होंने दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा कहा है ।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार सुख की इच्छा ही दुःखों का कारण है क्योंकि सुख और दुःख एक दूसरे से बंधे हुए हैं ।

दुःख शब्द की उत्पत्ति दुस्  से हुई है जिसका अर्थ होता है बुरा, दूषित, दुष्ट, नीच, कठिन , कठोर आदि । अर्थात वे भवनाएं जो आपके चित्त को दूषित करती हैं तथा आपको कष्ट, कठोरता अथवा बुराई का अनुभव कराती हैं वही दुःख हैं ।

आखिर इस दुःख का कारण क्या है ? इसका प्रत्येक दर्शन एक ही स्वर में उत्तर देता है वह है "इच्छाएं" हमारी इच्छाएं ही हमारे दुःखों का कारण हैं जिससे भय भी उत्पन्न होता है । हम लोगों से , वस्तुओं से यहां तक कि ईश्वर से भी अपेक्षा करते हैं कि वे हमारी इच्छा के अनुसार ही कार्य करें । किन्तु यह भूल जाते हैं उनमें भी प्रज्ञा है अथवा किसी अन्य प्रज्ञावान व्यक्ति की प्रज्ञा उनपर प्रभाव डालती है । इसलिए ये आवश्यक नहीं है कि वे हमारी इच्छा के अनुसार कार्य करें ।

दुःख कारण होता है भय का तथा भय से ही पाप तथा अनाचार का जन्म होता है । हम अपने दुःख का निर्माण स्वयं करते हैं सकाम कर्मों द्वारा । एक बड़े दार्शनिक में कहा है "जब तक मैं न चाहूं मुझे कोई दुःखी नहीं कर सकता है ।"

मृग स्वयं में कस्तूरी होने के बावजूद पूरे जंगल में दौड़ता है कस्तूरी पाने के लिए पर प्राप्त नहीं कर पाता है । इसी प्रकार प्रत्येक दुःख का निदान आप में स्वयं में होता है पर आप उसे बाहर ढूंढ रहे होते हैं और वो आपको प्राप्त नहीं होता आप और ज्यादा दुःखी होते हैं । वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि सुख की इच्छा का त्याग कर दिया जाए तो दुःख स्वयं ही दूर हो जाएगा ।

एक बार एक व्यक्ति राजा जनक के दरबार में आया और बोला ; महाराज मैं बहुत दुःखी कोई उपाय बताइये । राजा जनक बोले ये सिंहासन मुझे उठने नहीं दे रहा है यह मुझे पकड़े हुए है कैसे उठूँ और बिना खड़े हुए मैं आपको बता नहीं पाऊंगा तुम्हारे दुःखों का उपचार ।

व्यक्ति बोला - महाराज! सिंहासन आपको जकड़े हुए है या फिर आप सिंहासन को , यदि आप नहीं बताना चाहते तो मत बताइये पर मेरा मज़ाक मत उड़ाइये ।

राजा जनक बोले इसी तरह तुम दुःख को पकड़े हुए हो न कि दुःख तुम्हें । इच्छाओं का त्याग कर दो दुःख स्वयं चला जायेगा ।

गीता में श्रीभगवान ने भी कहा है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।।

Tuesday, September 26, 2017

प्रेम

#शब्द_मीमांसा 15

शब्द - प्रेम

शब्द संप्रेषक - मनीष जैन जी ।

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एक मनु मोरा ।।
सो मनु रहत सदा तोहिं पाही । जानु प्रीति रस एतनेहु माही ।।

इसमें सीता माता हो हनुमान जी भगवान राम का उनके प्रति प्रेम का वर्णन करते हुए कहते है । "मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ इस रहस्य को मात्र मेरा मन ही जानता है और वो मन भी सदैव तुम्हारे साथ ही रहता है ।"

सूरदास जी लिखते हैं -
"उद्धव मन न भये दस बीस , एक रह्यो सो गयो श्याम संग ।" 

यहां पर उद्धव जब गोपियों को ब्रह्मज्ञान देने की बात करते हैं तो वे कहती हैं , हे उद्धव! हमारे पास कोई दस या बीस मन तो हैं नहीं हमारा प्रेम भगवान कृष्ण के साथ इतना प्रगाढ़ है कि एक मन था वो भी उन्हीं के साथ चला गया अब आपका ब्रह्मज्ञान हम क्योंकर ले पाएंगे ?

प्रेम तो ऐसा भी होता है की एक बाघम्बर धारी अवधूत के लिए पार्वती समस्त वैभव छोड़कर भी तप करती हैं । सीता पति के साथ वन में अनेक कष्ट सहती है । राम इसी प्रेम के लिए पिता के दिये हुए वचन पूरा करने के लिए वन गमन करते हैं। महाराज शिवि का जीवों के प्रति इतना प्रेम हैं कि वे एक कबूतर को बचाने के लिए अपने शरीर का मांस काटकर तौल देते हैं । दधीचि को समाज और सृष्टि से इतना प्रेम कि अपनी अस्थियं तक दान कर दीं समाज के लिए । भगवान को भक्त से इतना प्रेम कि नङ्गे पैर दौड़ आते हैं और मुट्ठीभर चावल के बदले तिहूंपुर का राज दे देते हैं । सैनिक का प्रेम तो देखिए साहब वो अपनी मातृभूमि से इतना प्रेम करता है अपने प्रिय, परिजन और परिवार के प्रेम की बलि देकर खुद को निछावर कर देता है खुशी खुशी । भगीरथ का प्रेम देखिये उद्देश्य के लिए की कठिन तप करके गङ्गा को ही धरती पर ला दिया ।

यही नहीं प्रेम की महिमा का गान करते हुए बाइबिल भी अध्याय 23 योहन्ना 4 में लिखता है "प्रेम ही परमेश्वर है।" सूफी मत ईश्वर को ही इश्क कहता है । इश्क के तो प्रकार बताता है प्रथम इश्क हकीकी और इश्क मजीदी । इसी इश्क हक़ीक़ी की पराकाष्ठा में कबीर दास लिखते हैं -

"राम देव संग भाँवर लेहूँ धनि धनि भाग हमार ।"

बात करते हैं इस "प्रेम" शब्द के अर्थ की हम पाते है "प्रियं रमन्ति मनसा" अर्थात जब आपके मन में आपका प्रिय रमण करने लगे वही स्थिति प्रेम है ।

यदि हम ईप्सा के आधार पर देखें तो पाते हैं प्रेम के दो भेद हैं । जिसमें प्रथम है निष्काम प्रेम जिसमें कोई कामना कोई इच्छा नहीं होती व्यक्ति को अपने प्रिय से यहां तक प्रिय की इच्छा के बिना उसके सानिध्य की भी इच्छा नहीं । जब व्यक्ति का सर्वस्व उसका प्रिय ही होता है । इसे उच्चतम स्थान प्राप्त है ।

दूसरा प्रकार है प्रेम का सकाम प्रेम अर्थात प्रिय से कुछ इच्छाएं तथा अपेक्षाएं रखता है व्यक्ति उसकी परिस्थितियां और स्वयं के समर्पण को देखकर । किन्तु यह ध्यातव्य है कि सकाम प्रेम और स्वार्थ दोनों में अंतर होता है । सकाम प्रेम वास्तव में सहजीविता है प्रिय और प्रिया के मध्य दोनो एक दूसरे के लिए कुछ करते हैं और प्राप्ति की इच्छा भी रखते हैं देश और काल के अनुसार किन्तु स्वार्थ में एक पक्ष येन केन प्रकारेण अपनी इच्छाओं की पूर्ति के मन्तव्य रखता है । सकाम प्रेम को निम्न माना गया है तथा स्वार्थ को निकृष्टतम ।

अक्सर लोग सुंदर कांड का चौथाई दोहा दोहराते हैं - "भय बिनु होहिं न प्रीति" । क्या सच में प्रेम का एक मात्र कारण भय ही है  या और कुछ भी । वास्तव में प्रेम के दो कारण हैं ज्ञान तथा भय ।

प्रथम ज्ञान से निष्काम प्रेम का जन्म होता है जो कि पराकाष्ठा है प्रेम की । यह स्थाई होता है बिल्कुल ज्ञान की तरह जैसे ज्ञान कभी समाप्त नही होता सदैव बढ़ता जाता है वैसे ही ज्ञान आधारित प्रेम भी बढ़ता जाता है कभी समाप्त नहीं होता ।

द्वितीय कारण भय है प्रेम का; यह भय किसी भी वस्तु का हो सकता है , दण्ड का भय अथवा कुछ खो जाने या कुछ न प्राप्त कर पाने का  तथा यह उतना ही स्थाई होता है जितना कि भय, भय समाप्त होते ही यह प्रेम भी समाप्त हो जाता है ।

माता- पिता तथा गुरुजनों का प्रेम ममता तथा स्नेह कहलाता है जो हमें सदैव शिखर पर प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है ।

प्रेम यदि प्रेयसी या प्रिय से हो जाये तो उसे प्रीति कहते हैं।  इसमें महादेव से लेकर देवदास तक कि श्रेणियां हैं । यहां पर असफलता उग्रता, दीनता तथा हीनता का कारण बनती है । महादेव का सती के प्रति प्रेम ही था कि सती के आत्मदाह के उपरांत महादेव के तांडव से सृष्टि का नाश होना प्रारम्भ हो गया था । एक प्रेम का वर्णन कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने किया है लिखते हैं -

एक पुरुष जो बज्र इंद्र का झेल सकता है,
सिंह की बाहों में भी खेल सकता है ।........
बिद्ध हो जाता बंकिम नयन के बाण से,
रूपसी है जीत लेती उसको मधुर मुस्कान से ।।

पुरु जैसे योध्दा का विजय रथ भी रुक जाता है इस प्रेम के आगे और उर्वशी के वियोग में वो दीनता को प्राप्त करते हैं । मेनकाएँ विश्वामित्रो की साधना भंग कर देती हैं ऐसा भी होता है ये प्रेम । दूसरी तरफ इसी प्रेम के कारण व्यक्ति को पार्वती मिलती है और वो शक्ति के साथ मिलकर शिव अर्थात कल्याण और सृजन की मूर्ति बन जाता है ।

जब ईश्वर से प्रेम होता है तो उसे भक्ति कहते हैं और ईश्वर को जब भक्त से प्रेम होता है तो वत्सलता कहलाता है और प्रेम विवश होकर नङ्गे पैर दौड़ पड़ते हैं भगवान ।

जब समकक्षों के साथ प्रेम हो जाये तो मित्रता कहलाती है । तथा यही प्रेम जब आपके अधीनस्थ आपसे करते हैं तो अनुशासन कहलाता है । इस प्रेम के बहुत रूप हैं और हर रूप में यह कल्याण ही करता है व्यक्ति का यदि इसके पथ से व्यक्ति विचलित न हो ।

Monday, September 4, 2017

गुण (तामस)

#शब्द_मीमांसा #14C

शब्द - गुण (तमस)

शब्द संप्रेषक - अभिजीत दत्त जी ।

तीन गुणों में अंतिम तथा निम्नतम गुण है तामस भगवान कृष्ण गीता के अठारहवें अध्याय के 22वें श्लोक में कहते हैं -

यस्तु कृत्स्नवेदकस्मिन्कार्ये सक्तमहेतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ।।

अर्थात जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है - वह तामस कहा गया है ।

आगे श्लोक 25 में श्रीभगवान कहते हैं , हे अर्जुन ! जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है वह तामस कर्म कहलाता है ।

जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला आलसी तथा दीर्घसूत्री है वह - तामस कहलाता है । भगवान वासुदेव श्लोक 28 में व्याख्या करते हुए कहते हैं ।

श्लोक 32 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ; हे पार्थ ! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को ही "यह धर्म है" ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थों को भिन्न मान लेता है, वह तामसी बुद्धि है ।

गोविंद श्लोक 35 में तामसी धारणाशक्ति के बारे में बताते हुए कहते हैं ; हे धनन्जय ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता है - वह धारणाशक्ति तामसी है ।

हे भरतश्रेष्ठ ! जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है - वह निद्रा, प्रमाद, और आलस्य से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।

चरक संहिता में तामस गुण के तीन प्रकार बताये गए हैं जो कि क्रमशः हैं -

 प्रथम भेद तामस गुणों का है वह है पाशव अर्थात पशुवत इसके अंतर्गत जो व्यक्ति शरीर को अलंकृत करने की इच्छा न रखता हो , अपवित्र स्वभाव वाला, निंदित आचरण और भोजन वाला, मैथुनकामी, सोने के स्वभाव वाला पुरुष हो उसको "पाशव" प्रकृति का जानें ।

द्वितीय भेद तामस गुणों का है मात्स्य अर्थात जो डरपोक, अज्ञानी, भोजन का लोभी, अस्थिर चित्त, चंचल, काम और क्रोध में फंसा हुआ, भ्रमणशील, पानी की अधिक चाह रखने वाला हो उसे मात्स्य प्रकृति का जानें ।

तामस गुणों का तृतीय भेद बताया गया है वानस्पत्य अर्थात जो आलसी, केवल भोजन में ही दत्तचित्त, सब प्रकार से ज्ञान व बुद्धि से रहित जड़ पुरुष हो उसको वानस्पत्य प्रकृति का जानें ।

इस प्रकार यदि हम सार रूप से देखें तो सात्विक गुण वाला व्यक्ति वह है जो समाज और राष्ट्र को प्राथमिकता और स्व को द्वितीय स्थान पर रखता है ।

राजस गुणों वाला व्यक्ति वह है जो स्व को प्रथम स्थान पर रखता है येन केन प्रकारेण उसका स्व सिद्ध होना चाहिए ।

तमस गुणों वाला व्यक्ति वह है जो केवल समाज में रिष्टि करता है अर्थात उसका लाभ हो या न हो किन्तु समाज को नुकसान पँहुचें ।

Thursday, August 31, 2017

गुण (रजस)

#शब्द_मीमांसा #14B

शब्द - गुण (रजस)

शब्द संप्रेषक - अभिजीत दत्त जी ।

दिनाँक - 31/08/2017

तीन गुणों में से द्वितीय गुण है रजस गुण या रजो गुण जिसकी व्याख्या करते हुए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहते हैं -

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोSशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।।  (अध्याय 18 श्लोक 26)

अर्थात जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है - वह राजस कहा गया है

किन्तु उससे पूर्व ही श्लोक 23 में श्रीभगवान कहते हैं कि जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है वह कार्य राजस कहलाता है ।

श्लोक 31 में रजस बुद्धि के बारे में गोविंद व्याख्यायित करते हुए कहते हैं ; हे अर्जुन! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता वह बुद्धि राजस होती है ।

किन्तु है धनन्जय फल की इच्छा रखने वाला व्यक्ति जिस प्रकार धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ तथा कामों को धारण करता है वह धारण शक्ति राजसी है । - ऐसा उदबोधन  श्रीभगवान द्वारा 34वें श्लोक में किया गया है अध्याय 18 के ।

राजस सुख के बारे में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी श्लोक 38 में विवेचना करते हुए कहते हैं " जो सुख, विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विषतुल्य अर्थात बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह तथा परलोक का नाश करने वाला होता है ।

रजस गुण जिन्हें चरक संहिता में रजस सत्व कहा गया है वहां पर इसके छः भेद बताये गए है जो कि क्रमशः हैं -

प्रथम भेद रजस गुण का है आसुर अर्थात जो शूरवीर, प्रचण्ड, दूसरों की निंदा करने वाला, ऐश्वर्यशाली, छल कपट करने वाला, रुद्र के तुल्य कोप से शत्रुओं को रुलाने वाला, भयंकर, दूसरों पर दया न करने वाला, अपनी ही बड़ाई चाहने वाला, आत्माभिमानी हो उसको आसुर जानें ।

द्वितीय भेद को राक्षस कहा गया है जो असहनशील, कारण से कुपित होने वाला, छिद्र अर्थात शत्रु के कमजोर स्थान पर वार करने वाला, क्रूर, भोजन में अधिक रुचि रखने वाला, मांस का बहुत प्यारा, खूब सोने और खूब परिश्रम करने वाला, ईर्ष्याशील हो उसे "राक्षस" चित्त वाला जानें ।

तृतीय भेद को पैशाच कहा गया है । जो बहुत खाने वाला, स्त्री के समान स्वभाव वाला, स्त्रियों के साथ एकांत में रहने की इच्छा रखने वाला, अपवित्र, शुद्धता व स्वच्छता से द्वेष रखने वाला, भीरू, दूसरों को डराने वाला, विकृत आहार और विकृत विहार वाला हो उसको पैशाच स्वभाव वाला जानें ।

रजस गुणों का चौथा भेद "सार्प" नाम से जाना जाता है अर्थात जो क्रोधित होने पर शूर और अक्रोध की स्थिति में भीरू, तीखे स्वभाव वाला, परिश्रम करने वाला, भययुक्त स्थानों में भी दिखने वाला और आहार विहार करने वाला हो उस व्यक्ति को सार्प जानें ।

पंचम भेद रजस गुणों का प्रैत नाम से अभिप्रेत है अर्थात जो सदा भोजन की इच्छा रखने वाला ,बहुत दुःखशील और आचार तथा उपचार से युक्त, निंदा करने वाला, दूसरों को अपने धन में भाग न देने वाला, बहुत लोभी, कर्म न करने वाला पुरूष हो उसको "प्रैत" या प्रेत स्वभाव वाला जाने ।

छठा और अंतिम भेद रजस गुणों का है "शाकुन" अर्थात जो कामों में निरंतर फंसा हुआ , निरन्तर आहार-विहार में लिप्त, चंचल, असहनशील, संचय न करने वाला पुरुष हो उसको शाकुन जानें ।

Wednesday, August 30, 2017

गुण (सात्विक)

#शब्द_मीमांसा #14A

शब्द - गुण (सात्विक)

शब्द संप्रेषक - अभिजीत दत्त जी ।

दिनाँक - 26/08/2017

तीनो गुणों में प्रथम और सर्वोच्च गुण है सत अथवा सात्विकता । श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी कहते हैं -

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतं ।
अफल प्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्चते ।। (गीता 18/23)

 जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न  चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो - वह सात्विक कहा जाता है ।

आगे श्लोक 26 में श्रीभगवान कहते हैं जो कर्ता संगरहित , अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष शोकादि विकारों से रहित है - वह सात्विक कहा जाता है ।

 श्लोक 29 में अभिवर्णित किया गया है कि जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग अर्थात गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति का त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए है तथा निवृत्ति मार्ग अर्थात देह का अभिमान त्यागने वाला, कर्तव्य और अकर्तव्य, भय तथा अभय को एवं बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है ।

चरक संहिता के द्वितीयखण्ड के पंचम अध्याय जिसे शारीरस्थानम् नाम से शीर्षित किया गया है में इस सात्विक चित्त के सात भेद बताये गए हैं जो कि क्रमशः -

सात्विक चित्त का प्रथम भेद है ब्राह्म । इसके गुणों के वर्णन इस प्रकार है - जो पवित्र, सत्यप्रतिज्ञ, जितात्मा, सम्पत्ति और सत्फ़ल को अन्यों के साथ बांटकर भोगने वाला, ज्ञान-विज्ञान, वचन-प्रतिवचन की शक्ति से युक्त, स्मृतिमान काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, मोह, ईर्ष्या, हर्ष और क्रोध से रहित, सब प्राणियों में समबुद्धि रखने वाला हो उसे ब्राह्म प्रकृति का जानें ।

द्वितीय सात्विक चित्त है आर्ष । जिसका वर्णन है - जो यज्ञ करने वाला, अध्ययनशील, व्रत का पालक, होमशील, ब्रह्मचर्य का पालक, अतिथिपूजक, मद, मान, राग, द्वेष, मोह, लोभ और रोष से रहित, प्रतिभा से युक्त वचन, विज्ञान, उपधारणा इन शक्तियों से सम्पन्न पुरुष हो उसको आर्षचित्त वाला जानें ।

तृतीय सात्विक चित्त का प्रकार है ऐन्द्र । जो ऐश्वर्यवान, ग्रहण करने योग्य वाक्य वाला, यज्ञ करने वाला, शूर, ओजस्वी, तेज़ से युक्त, साहसिक, क्रूर कर्मों को न करने वाला, दूरदर्शी, धर्म, अर्थ और काल दत्तचित्त पुरुष को "ऐन्द्र" समझें ।

चतुर्थ सात्विक चित्त का भेद है याम्य । जो कर्तव्य और अकर्तव्य की मर्यादा में रहने वाला, प्राप्तकारी अर्थात अवसर के अनुसार कार्य करने वाला, असंप्रहार्य अर्थात जिसपर कोई प्रहार न कर सके और न ही जिसकी मार रोकी जा सके, उन्नतिशील, स्मृतिवान, ऐश्वर्यशील, राग, द्वेष, मोह से रहित पुरुष हो उसको याम्य जाने ।

पंचम भेद वारुण का वर्णन है - जो शूरवीर, धीर, पवित्र और मैलेपन से द्वेष करने वाला, यज्ञ करने वाला, जलक्रीड़ा में रत, क्लिष्ट कर्मों से भिन्न सुख से होने वाले कर्मों को करने वाला, उचित स्थान पर कोप तथा कृपा करने वाला पुरुष हो उसको वारुण जानें ।

षष्ठ भेद है सात्विक चित्त का "कौबेर" । जो स्थान, मान, उपभोग, सामग्री, परिवार से युक्त, नित्य शर्म, अर्थ और काम में तत्पर, पवित्र, सुखपूर्वक विहार विनोद करने वाला, उचित स्थान पर कोप व प्रसन्नता प्रकट करने वाला पुरुष हो उसको कौबेर प्रकृति का जानें ।

सप्तम तथा अंतिम भेद है सात्विक चित्त का जिसे गांधर्व से संज्ञापित करते हैं । जो नृत्य, गीत, बाजे, स्त्रोत, श्लोक, आख्यायिका, इतिहास, पुराणों को पसन्द करने वाला, इनमें कुशल, सुगन्ध, माला,  अनुलोम, वस्त्र, स्त्रियों के साथ विहार करने वाला, अनिंद्य पुरुष हो उसको "गांधर्व" जाने ।

गुण

#शब्द_मीमांसा #14

शब्द- गुण

शब्द प्रेरणा - चरक संहिता

दिनाँक - 24/08/2017

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ छः हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समन्वय । इसके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर "अभाव" को भी पदार्थ माना गया है इसप्रकार कुल मिलाकर सात पदार्थ होते हैं और उनमें से "गुण" भी एक पदार्थ है ।

गुण शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के "गु" शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है बुराइयों का त्याग करना अर्थात जिसमें बुराइयां न हो वही गुण है । इसके अतिरिक्त गुण का अन्य अर्थ हैं धनुष की प्रत्यंचा, तंतु, दोहराना, दुर्बा घास आदि । किन्तु हम विवेचना करेंगे सात पदार्थों में से एक पदार्थ गुण की ।

भाषापरिच्छेद के अनुसार "द्रव्यश्रयी अर्थात द्रव्य में रहने वाला, कर्म से भिन्न और सत्तावन पदार्थ ही गुण है ।" इसके चौबीस प्रकार बताये गए हैं जो कि क्रमशः है - रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, यत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म,  अधर्म तथा शब्द ।

शाक्त मतानुसार प्राथमिक सृष्टि की प्रथम अवस्था में शक्ति का जागरण दो रूपों क्रिया तथा भूति में होता है तथा इसके छः आश्रित गुणों का प्रकटीकरण होता है जो कि क्रमशः ज्ञान , शक्ति, प्रतिभा, बल, पौरुष एवं तेज हैं । वैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार इन्हीं छः आश्रित गुणों द्वारा वासुदेव के पंचरात्रो में प्रथम और उनकी शक्ति लक्ष्मी का प्रादुर्भाव होता है । इसके अतिरिक्त अन्य छः गुणों के पृथक पृथक युग्म द्वारा अन्य पंचरात्रो संकर्षण, प्रद्युम्न और अनुरुद्ध तथा उनकी शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है ।

संख्या दर्शन के अनुसार गुण प्रकृति के घटक हैं तथा इनकी संख्या 3 है सत, रज तथा तम । श्रीमद्भागवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हीं तीन गुणों का व्याख्यान दिया है ।

चरक संहिता के शरीरस्थानम नामक अध्याय में भी इन्हीं तीन प्रकार के गुणों का वर्णन है जिसे वहां पर सत्व अर्थात मन कहा गया है तथा प्रत्येक को कई उपविभागों में वर्णित किया गया है -

सर्वप्रथम सत गुण के सात भेद बताये गए हैं जो कि क्रमशः है - ब्रह्म, आर्ष, ऐन्द्र, याम्य, वारुण, कौवेर तथा गन्धर्व ।

द्वितीय रजस गुणों को छः भेदों में बांटा गया है जिसके नाम क्रमशः आसुर, राक्षस, पैशाच, सार्प, प्रैत तथा शाकुन हैं ।

तृतीय तामस गुण के तीन भेद बताये गए हैं जोकि क्रमशः हैं - पाशव, मात्स्य तथा वानस्पत्य ।

संख्या दर्शन के अनुसार सत्व का अर्थ है प्रकाश अथवा ज्ञान, रज का अर्थ है क्रिया या गति एवं तम का अर्थ है अंधकार अथवा जड़ता । आगे कहा गया है कि जिस प्रकार तीन धागों से रस्सी बंटी जाती है उसी प्रकार सारी सृष्टि तीन गुणों से घटित है ।

मीमांसा

#शब्द_मीमांसा #13

शब्द - मीमांसा

शब्द संप्रेषक - नितिन गुप्ता जी

दिनाँक - 23/08/2017

प्राचीन भारतीय वैदिक दर्शन को छः भागों में बांटा गया है जिसे षड्दर्शन कहा जाता है जो कि हैं क्रमशः - संख्या दर्शन, योग दर्शन,  न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, वेदांत दर्शन तथा मीमांसा ।

मीमांसा शब्द का पाणिनि के अनुसार शाब्दिक अर्थ है "जानने की इच्छा या लालसा ।"
चतुर्वेद कोष के अनुसार मीमांसा का अर्थ है गूढ़ विचार या अनुसंधान अथवा खोज है । मीमांसा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के "मीम्" शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है "शब्द की विवेचना करना" ।

मीमांसा का तात्विक दर्शन विपक्षण है । इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में की जाती है । आत्मा, ब्रह्म, जगत आदि की विवेचना इसमें ही आती यह केवल वेद तथा उसके शब्दों की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है ।

मीमांसा दर्शन को दो भागों में बांटा गया है प्रथम है पूर्वमीमांसा इसके लेखक जैमिनी है । पूर्वमीमांसा में कुल 907 अधिकरण तथा 2645 सूत्र हैं । प्रत्येक अधिरण पांच भागों में बंटा हुआ है जो है क्रमशः - विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष तथा सिद्धांत । मीमांसा का द्वितीय भाग है उत्तरमीमांसा इसके ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र के रचयिता हैं वादरायण ।

किसी शब्द अथवा पद की मीमांसा किये जाने के लिए कुछ सिद्धांतो का पालन किया जाना आवश्यक होता है -

प्रथम सिद्धांत है शाब्दिक मीमांसा का सिद्धांत अर्थात किसी भी वाक्य या शब्द के व्याकरणीय शाब्दिक अर्थ पर सर्वप्रथम  ध्यान दिया जाना चाहिए ।

द्वितीय सिद्धांत हैं शब्द के विषय तथा आशय को देखा जाना अर्थात शब्द जहाँ प्रयोग किया जा रहा है उसका विषय तथा आशय क्या है उसी अनुसार शब्द का अर्थ लगाया जाना चाहिए ।

तृतीय सिद्धांत है रिष्टि परिहार का सिद्धांत अर्थात यदि प्रारम्भ के दोनों सिद्धांतो से सही अर्थ नहीं निकल रहे हो तो उक्त शब्द का वही अर्थ निर्दिष्ट किया जाना चाहिए जो कि लोकहित में हो ।

चतुर्थ सिद्धांत है सहचर्येण ज्ञायते का अर्थात विशेष शब्दों के साथ आने वाले सामने शब्दों का भी उसी क्रम में अर्थ होता है जो कि विशेष शब्दों से आशय निकलता हो ।

पूर्वमीमांसा में तात्पर्य निर्णय के लिए सात बातों को आवश्यक बताया गया है जो कि क्रमशः है -

उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास अपूर्वता अर्थात नवीनता, फल यानी उद्देश्य, अर्थवाद अर्थात महात्म्य और अंतिम है  उपपत्ति जिसका अर्थ होता है प्रमाणों द्वारा सिद्धी ।

अर्तिका

#शब्द_मीमांसा #12

शब्द - अर्तिका

शब्द संप्रेषक - सारिका सौरभ

 शब्द अर्तिका वास्तव में संस्कृत भाषा का शब्द है इसका अर्थ होता है "बड़ी बहन" ।  इसे इसी तरह से हूबहू हिंदी भाषा ने अपना लिया बिना किसी अपभ्रंश के ।

 स्त्री को प्रत्येक रूप में पूजनीय माना गया है चाहे वो माता हो, बहन हो, पुत्री या पत्नी हो । मनु ने कहा है "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" अर्थात जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता रमण करते हैं ।

बात करते हैं बहनों की जैसा कि परम्परा रही है साल में दो बार हम बहनों से आशीर्वाद लेते हैं एक बार तो दीपावली के बाद भैया दूज में और दूसरी बार रक्षाबंधन पर । हमारे बीच एक गलत धारणा प्रचलित है कि रक्षा बंधन पर बहन भाई की कलाई पर राखी इसलिए बंधती है कि वो उसकी रक्षा करे । जी नहीं ये सत्य नहीं है वो इसलिए बांधती है ताकि उसका भाई पूरे वर्ष रोगों तथा व्याधियों से मुक्त रहे और उसे हमेशा सद्बुद्धि और सद्विचार प्राप्त हों ।

यजुर्वेद में कहा गया है "जिसे रक्षा बंधन बांधा जाता है वह पूरे वर्ष निरोग, संकटो को जीतने वाला और उत्तम विचारों वाला बना रहता है ।"  अर्थात वो बन्धन अपनी स्वयं की रक्षा के हेतु न होकर जिसे बांधते है उसकी रक्षा के लिए होता है । ताकि वह व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरा कर सके जो कि उसके परिवार, समाज तथा राष्ट्र के प्रति होते है ।

अन्याय

#शब्द_मीमांसा #12

शब्द - अन्याय

शब्द संप्रेषक - आशीष अग्रवाल जी ।

दिनाँक - 22/08/2017

हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि "अन्याय पूर्वक अर्जित किया हुआ धन केवल दस वर्षों तक  जीवित रहता है ग्यारहवें वर्ष उसका अवश्य ही नाश हो जाता है । वास्तव में अन्याय एक नकारात्मक अवधारणा है  । अन्याय से आशय होता है जहाँ न्याय नहीं होता है । अर्थात जहां न्याय की आशा अथवा इच्छा की जाती है किंतु न्याय प्राप्त नहीं होता । परन्तु न्याय की मांग या आशा न किये जाने पर अथवा न्याय प्राप्त करने हेतु स्वयं क्रियाशील न होने पर अधिकारों का लोप अन्याय नहीं है ।

यदि हम अन्याय शब्द को परिभाषित करने का प्रयत्न करें तो पाते हैं कि "अन्याय किसी व्यक्ति के प्राप्त होने वाले अधिकारों का लोप किया जाना है।"

अन्याय की तीन श्रेणियां होती हैं -

अन्याय की प्रथम श्रेणी है न्याय ही नहीं दिया जाना । इसके अंतर्गत किसी व्यक्ति को प्राप्त होने वाले अधिकारों का आहरण बिना किसी कारण के कर लिया जाता है तथा उसके प्रयासों के उपरांत  भी उसे युक्तियुक्त तौर पर अपने अधिकार नहीं प्राप्त होते हैं ।

अन्याय का दूसरा स्तर है न्याय प्रदान करने में देर किया जाना । जब न्याय प्रदान करने में इतना देर हो जाये जब विक्षुब्ध व्यक्ति के लिए उक्त न्याय अथवा अधिकार का औचित्य एवं अर्थ खत्म हो जाता है वह भी अन्याय की श्रेणी में आता है ।

तृतीय है न्याय के सिद्धांतों का पालन न किया जाना, किसी भी न्याय निर्णयन में । नैसर्गिक न्याय अथवा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतो का पालन किया जाना आवश्यक है न्याय निर्णयन में इसके कुछ सिद्धांत इस प्रकार है -

  1- कोई भी व्यक्ति स्वयं के मामले में न्यायधीश नहीं हो सकता है । अर्थात न्याय निर्णयन में किसी भी पक्षकार को न्यायाधीश बनने की इजाजत नहीं दी जा सकती है क्योंकि ऐसे मामलात में व्यक्ति न चाहते हुए भी पक्षपात कर लेता है, जिससे कि न्याय की अवधारणा को चोट पंहुचती है ।

2- द्वितीय है निर्णय को कारण सहित दिया जाना चाहिए । यदि न्याय देना है तो आवश्यक है कि अधिकारों को दिए जाने अथवा उसका लोप किये जाने का कारण बताया जाना चाहिए ताकि पक्षकार संतुष्ट हो सके कि ऐसा क्यों किया गया यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो वह न्याय की श्रेणी में नहीं आता है ।

3- तृतीय है पक्षकारों को सुना जाना चाहिए तथा उन्हें इसका पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए कि वे अपना पक्ष रख सकें । इस सिद्धांत के दो हिस्से होते हैं प्रथम सूचना दिया जाना तथा दूसरा सुनवाई का पर्याप्त अवसर दिया जाना क्योंकि हम बिना किसी को अवसर दिए यदि एक पक्ष को सुनकर निर्णय देते हैं तो वह अन्याय कहलायेगा ।

किन्तु कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जहां इन नियमों का पालन किया जाना आवश्यक नहीं होता है और उन्हें अन्याय की श्रेणी में भी नहीं रखा जाता है -

प्रथम आपातकाल में अपवर्जन , क्योंकि धर्मों में आपद्धर्म को उच्चतम माना गया है जहां पर अन्याय से विक्षुब्ध होने वाले कि अपेक्षा उससे लाभान्वित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है ।

जहां लोकहित जुड़ा हुआ है वहां ओर न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना आवश्यक नहीं है ।क्योंकि लोकहित का पलड़ा हमेशा किसी भी न्याय या अन्याय से भारी होता है ।

जहां पर न्याय के इन नियमों को लागू किया जाना अव्यहारिक हो । वहां पर इनको न लागू किया जाना कोई अन्याय नहीं है ।

आश्रम

#शब्द_मीमांसा #11

शब्द- आश्रम

शब्द संप्रेषक - अंकुर पंड्या जी ।

दिनाँक - 20/08/2017

जैसा कि सर्वविदित है कि भारतीय संस्कृति में जीवन के अभी अंगों को व्यवस्थित करने का चलन रहा है । जीवन को व्यवस्थित करने हेतु आश्रम तथा पुरुषार्थ का प्रणयन किया गया है ।मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत होता है वह संस्कारो द्वारा ही संस्कृत और प्रबुद्ध हो जाता है और यही संस्कार आश्रम व्यवस्था के आधार हैं ।

अमरकोश के टीकाकार भानुजी दीक्षित के अनुसार आश्रम शब्द की उत्पत्ति "श्रम"शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है मेहनत करना अथवा पुरुषार्थ करना । सामान्य तौर पर आश्रम शब्द के तीन अर्थ प्रचलित है -

1- वह स्थिति या स्थान जहां पर श्रम किया जाता है ।
2- स्वयं श्रम अथवा तपस्या करना । तथा
3- विश्रामावस्था ।

वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनमें मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अवस्था की उपलब्धियों को प्राप्त करके तथा इनसे विश्राम लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की तरफ प्रस्थान करता है ।

मनुष्य के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्षों का होना चाहिए (शतायुर्वे पुरुषः) एतएव चार आश्रमों में विभाजन 25-25 वर्ष का होना चाहिए प्रत्येक मनुष्य के जीवन की चार अवस्थाएं मोटे तौर पर मानी जाती है -

1-बाल्यकाल तथा किशोरावस्था;
2- यौवन;
3- प्रौढ़ावस्था;  तथा
4- वृद्धावस्था ।

इन्ही अवस्थाओं के आलोक में चार आश्रमों की व्यवस्था की गई है । आश्रमों के नाम तथा क्रम में कहीं कहीं अंतर पाया जाता है -

आपस्तम्ब गृहसूत्र के अनुसार गृहस्थ, आचार्यकुलम (ब्रह्मचर्य) , मौन तथा वानप्रस्थ हैं ।

गौतम धर्मसूत्र के अनुसार आश्रमों के नाम क्रमशः ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु तथा वैखानस हैं ।

वशिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार आश्रमों की व्यवस्था क्रमशः ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा परिव्राजक हैं ।

किन्तु मनु द्वारा बताए गए चार आश्रम और उनके क्रम ही सबसे ज्यादा प्रचलित हैं जो इस प्रकार हैं ।

प्रथम है ब्रह्मचर्य आश्रम । इस आश्रम में प्रवेश व्यक्ति उपनयन संस्कार के उपरांत करता है तथा चूड़ाकर्म के बाद निकल कर बाहर आता है । इस आश्रम में मात्र धर्म नामक पुरुषार्थ को स्थान दिया गया है । मनु के अनुसार ब्रह्मचर्य में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत का पालन करना चाहिए ।

द्वितीय आश्रम को मनु ने गृहस्थ नाम दिया है । यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है । इस आश्रम में व्यक्ति का प्रवेश विवाह संस्कार के साथ करता है । इस आश्रम में चारो पुरुषार्थों का पालन करना पड़ता है अर्थात उसे धर्मपूर्वक अर्थ का अर्जन करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन अकर्ता की भांति अथवा फल की इच्छा से मुक्त होकर (जिसे मोक्ष कहा गया है) करना चाहिए । मनुस्मृति के अनुसार गृहस्थ आश्रम में विवाह करके घर बसाना चाहिए तथा सन्तानोतपत्ति द्वारा पितृ ऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण तथा नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषि ऋण चुकाना चाहिए ।

तृतीय आश्रम को मनु ने वानप्रस्थ कहा है । वन का अर्थ मात्र जंगल ही नहीं होता अपितु उसके अन्य अर्थ जल तथा समाज भी होते हैं । यहां वन का अर्थ समाज है अर्थात समाज की तरफ प्रस्थान कर देना ही वानप्रस्थ है । इस आश्रम में पुरुषार्थ के रूप में मात्र धर्म, काम तथा मोक्ष होते हैं अर्थात अब व्यक्ति को अनासक्त भाव से समाज की तरफ प्रस्थान कर देना चाहिए । मनु के अनुसार इस आश्रम में व्यक्ति को सामरिक कार्यों से उदासीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि द्वारा वन में जीवन बिताना चाहिए ।

चतुर्थ आश्रम को सन्यास नाम से संज्ञापित किया गया है । सन्यास अर्थात आप अब परिवार के ही नहीं बल्कि समाज के भी हो जाते हैं आप स्वयं को एक न्यास के रूप में परिवर्तित कर देते हैं । मनु ने भी कहा है इस आश्रम में व्यक्ति सांसारिक सम्बन्धों को त्यागकर अनागरिक हो जाता है ।

सार रूप से हम देखते हैं कि हमारे जीवन को अवस्थाओं के अनुसार संस्कार और पुरुषार्थों को व्यवस्थित करने की एक प्रक्रिया बनाई गई है जिसे हम आश्रम नाम से उद्बोधित करते हैं ।

षड्यंत्र

#शब्द_मीमांसा #10

शब्द- षड्यंत्र

शब्द संप्रेषक - मोटाभाई कनाणी

दिनाँक - 19/08/2017

किसी भी अपराध के गठन हेतु तत्वों की आवश्यकता होती है प्रथम दुर्भावना और द्वितीय दुष्कृत्य । यह सामान्य सिद्धांत है कि साधारणतः सभी अपराधों में दोनों का होना आवश्यक माना जाता है किंतु कुछ अपराध ऐसे भी होते हैं जो केवल मानसिक होते हैं तथा उनमें दुर्भावना या दुराशय का तत्व ही गठित करने के लिए पर्याप्त होता है उसमें से षड्यंत्र भी एक इसी प्रकार का अपराध है ।

शब्द षड्यंत्र दो शब्दों के मेल से बना है । प्रथम शब्द है "षड़" जिसका अर्थ होता है छः अर्थात व्यक्ति की छः दुष्प्रवृत्तियाँ जिन्हें काम, क्रोध, लोभ,मोह, मद, मत्सर नाम से जाना जाता है । द्वितीय शब्द है "यंत्र" जिसका यहां पर आशय है "युक्ति अथवा जाल" । अर्थात व्यक्ति की छः दुष्प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर बनाया गया गुप्त जाल अथवा युक्ति ही षड्यंत्र है ।

षड्यंत्र के अपराध के गठित होने के लिए कुछ चीजो क् होना आवश्यक है -

प्रथम है दुर्भावना पूर्ण आशय क्योंकि यदि आशय दुर्भाग्यपूर्ण न होकर सद्भावना पूर्ण होगा तो यह षड्यंत्र ने होकर योजना मात्र रह जायेगी ।

द्वितीय है कि षड्यंत्र में कम से कम दो अथवा दो से अधिक लोग होने आवश्यक है क्योंकि एक व्यक्ति अकेले कोई षड्यंत्र नहीं कर सकता क्योंकि अन्य दशाएं पूर्ण नहीं हो सकेंगी षड्यंत्र के लिए एक व्यक्ति द्वारा ।

तृतीय आवश्यकता है व्यक्तियों के बीच एक संविदा होनी चाहिए उस  कार्य को करने की उनके आशय सामान्य होने चाहिए अर्थात सभी व्यक्ति एक ही बिंदु पर एक ही तरह से सहमत होने चाहिए उनमें मत वैभिन्य नहीं होना चाहिए उक्त कार्य के प्रति ।

चौथी आवश्यकता है षड्यंत्र के अपराध के गठन हेतु कि सभी व्यक्तियों के जो उस दुष्कृत्य मे संलग्न हो सबके मस्तिष्क पहले से मिले होने चाहिए यदि कोई एक व्यक्ति किसी को मार रहा हो दूसरा भी आकर मारने लगे तो उसे षड्यंत्र नहीं कहेंगे ।

तथा पांचवी तथा अंतिम आवश्यकता है इस अपराध के लिए कि षड्यंत्र में शामिल सभी लोग अपने सामान्य आशय अथवा सामान्य उद्देश्य के अग्रसारण में कार्य करें ।

यदि हम षड्यंत्र के प्रकारों की बात करें तो पाते हैं कि प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री "माइकल बरकुन" ने षड्यंत्र के कार्यक्षेत्र के आधार पर इसे तीन प्रकार का बताया है -

प्रथम है घटनात्मक षड्यंत्र इसके अंतर्गत एक सीमित घटना हेतु षड्यंत्र किये जाते हैं तथा यह किसी घटना विशेष अथवा घटनाओं के समूह के लिए उत्तरदायी होता है ।

दूसरा है प्रणालीगत षड्यंत्र । इसके अंतर्गत षड्यंत्रों की एक पूरी प्रणाली कार्य करती है इसका उद्देश्य किसी जाति , धर्म या राष्ट्र आदि के विरुद्ध होता है ।

तीसरा और अंतिम है अतिषड्यंत्र । इसके अंतर्गत घटनात्मक तथा प्रणालीगत षड्यंत्रों की एक लंबी श्रृंखला शामिल होती है इन्हें परस्पर गूंथा जाता है आपस में ।

मोक्ष

#शब्द_मीमांसा #9

शब्द - मोक्ष

शब्द संप्रेषक - प्रीति सिंह

दिनाँक - 18/08/2017

सर्वधर्मान्परित्यज्य नामेकं शरणंब्रज: ।
अहम् त्वाम् सर्वपापेभ्यो मोक्षं स्याति मा शुचः ।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं हे पार्थ! अपने सभी धर्मो का त्याग करके मेरी शरण में आ जाओ मैं तुम्हे समस्त पापोंसे मोक्ष दे दूंगा ।

इसी प्रकार भारतीय संस्कृति में भी व्यक्ति के चार पुरुषार्थ बताये गए हैं जिसमें से चौथा पुरुषार्थ है है मोक्ष ।

मोक्ष शब्द का शाब्दिक अर्थ देखा जाय तो होता है "मा इच्छाम्" अर्थात जब व्यक्ति की कोई इच्छा शेष न रह जाये । दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति की समस्त इच्छाओं का शमन हो जाये उसी स्थिति को मोक्ष कहा गया है ।

इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अर्थ भी इस शब्द से सम्बद्ध है जैसे मुक्त करना, क्षमा करना, समाप्त कर देना आदि ।किन्तु विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतो में इसके जो अर्थ प्रयुक्त किये जाते हैं वे कुछ इस प्रकार हैं ।

संख्या दर्शन जिसे गीता में संन्यास दर्शन भी कहा गया है के अनुसार मोक्ष का तात्पर्य है व्यक्ति के पुरुष तत्व को प्रकृति तत्व से अलग करके पुरुष तत्व को परमपुरुष तत्व में विलीन कर देना ही मोक्ष है ।

गीता के कर्मयोग के अनुसार व्यक्ति द्वारा अकर्ता बनकर कर्म करना अर्थात सात्विक कर्मों को करते हुए उनके फलों के प्रति अनासक्ति ही मोक्ष है ।

भक्तियोग के अनुसार जीव का ईश्वर के साथ एकाकार हो जाना ही मोक्ष है । अर्थात ईश्वर को जानना और उसकी दिव्यता मे समाहित हो जाना ।

बौद्ध दर्शन में मोक्ष की स्थिति को निर्वाण कहा गया है । भगवान बुद्ध के अनुसार यह संसार दुःखमय है तथा दुःखों का कारण तृष्णा अर्थात इच्छाएं हैं और इन्हीं इच्छाओं की समाप्ति ही मोक्ष अर्थात निर्वाण है ।

जैन दर्शन केअनुसार चरमस्थिति अर्थात मोक्ष को कैवल्य कहा गया है । कैवल्य को प्राप्त करने वाले मनीषी को अर्हत कहा जाता है । जैन धर्म के दर्शन स्यादवाद के अंतर्गत माना जाता है कि किसी भी पदार्थ की सात अवस्थाएं होती हैं और सातों को कोई भी सामान्य व्यक्ति एक साथ नहीं जान या समझ सकता है इसलिए उसमें इच्छाएं बनी रहती हैं तथा अर्हत ही पदार्थ की सभी सात अवस्थाओं को एक साथ देख व समझ सकता है अर्थात उसकी इच्छाओं की समाप्ति हो जाती है ।

पातंजल योग दर्शन के अनुसार मूलाधार से निकलने वाली ऊर्जा समस्त पांच ऊर्जा कोषों को बेधकर जब आज्ञा चक्र अर्थात ब्रह्म में समाहित हो जाये तो उस स्थिति को मोक्ष कहा गया है ।


न्याय एवं वैषेशिक दर्शन का मानना है कि यदि सुख है तो दुःख अवश्य होंगे यही शाश्वत सत्य है इसलिए मात्र सुख की इच्छा करना बेकार है । दुःख का नाश एक ही दशा में सम्भव है जबकि सुख प्राप्ति की इच्छा त्याग कर दिया जाए और जब हम सुख प्राप्ति की इच्छा का त्याग कर देते हैं उसी स्थिति को मोक्ष कहा गया है ।

द्वैतवाद और अद्वैतवाद दोनों अगर सतही रूप से देखा जाए तो एक दूसरे के विपरीत प्रतीत होते हैं किंतु सूक्ष्म रूप से उनका उद्देश्य जीव को जी को ईश्वर का अंश है उसमें विलीन करना है । इसी स्थिति को इन दोनों दर्शनों मे मोक्ष कहा गया है । ईश्वर का अर्थ होता है "इष्टम् सः वर:" अर्थात जो समस्त इच्छाओं में सर्वश्रेष्ठ इच्छा है । यदि आपको अपनी सर्वश्रेष्ठ इच्छा प्राप्त हो जाती है तो आपकी कोई अन्य इच्छा नहीं बचती है और यहां भी इच्छाओं कक समाप्ति ही मुक्ति है ।

अतैव साररूप में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति की इच्छाओं को जो की असीमित कही जाती हैं उन्हीं का अंत अर्थात दुःखों का , कामना का और आसक्ति का अंत ही मोक्ष है ।

सन्यास

#शब्द_मीमांसा #8

शब्द- सन्यास

शब्द संप्रेषक - प्रीति सिंह

दिनाँक - 17/08/2017

भारतीय संस्कृति में जीवन, समाज तथा राष्ट्र को एक आदर्श रूप से व्यवस्थित किया गया है और प्रत्येक पड़ाव को जो जिस योग्य है वैसे नियम प्रदान किये गए हैं भारतीय संस्कृति जीवन को चार भागों में बांटती है जिसे आश्रम कहते हैं । वे आश्रम है ; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास ।

सन्यास की अवधारणा मात्र भारतीय संस्कृति में ही प्राप्त होती है अन्य किसी संस्कृति में यदि आप खोजेंगे तो इससे मिलती जुलती अवधारणा नहीं प्राप्त होगी ।

सन्यास शब्द के अर्थ की बात करें तो इसका शाब्दिक अर्थ होता है "सः न्यस्ति" अर्थात "जो अपना सर्वस्व समाज को न्यस्त कर दे" वही सन्यासी है । यानी कि जीवन अब उसका नहीं बल्कि समाज का हो जाता है ।

सन्यास के कुछ अन्य अर्थ भी प्रचलित है यथा त्याग कर देना , छोड़ देना, विरक्त हो जाना आदि ।

हम अक्सर सोचते हैं सन्यास का अर्थ है सभी कर्मों का त्याग कर देना सभी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना और वल्कल वस्त्र धारण करके मात्र ईश्वर की उपासना में अपने जीवन को लगा देना अथवा कुछ और भी सन्यास शब्द का अर्थ ? आखिर सन्यास में क्या त्यागना जरूरी है ? क्या नहीं त्यागना चाहिए ? यह अत्यंत जटिल प्रश्न है । क्योंकि सन्यास और त्याग दोनों एक दूसरे के पर्याय जैसे हैं ।

 शिव जी कहते हैं कि अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भी यही प्रश्न पूछा था कि "हे केशव! सन्यास और त्याग क्या है मैं अलग अलग जानना चाहता हूँ ।" इसका वर्णन गीता के अठारहवे अध्याय में किया गया है और यह अध्याय इसी विषय पर विवेचना करता है ।

इसका उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि : हे पार्थ! कुछ विद्वजन काम्य कर्मों के त्याग को सन्यास समझते हैं और कुछ विचारशील पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को सन्यास समझते हैं । हे अर्जुन ! किन्तु मेरा विचार है कि तीनों प्रकार के कर्मों ( सत, रज तथा तम) में से सत्कर्मो को करना तथा उनके फल का त्याग ही सन्यास है । अर्थात यज्ञ, दान तथा तप रूप कर्मों को एवं जो शास्त्रोक्त कर्म करना व्यक्ति का कर्तव्य है उसे आसक्ति तथा फल की इच्छा के बिना किया जाना ही त्याग अर्थात सन्यास है ।

यदि गीता के 18वें अध्याय के सभी 78 श्लोकों का अनुशीलन करके उन्हें सार रूप मे कहा जाए तो सन्यास हेतु जिन चीजो का त्याग आवश्यक है उन्हें सात श्रेणियों में बांट सकते हैं ।

1- निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग - चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा, अक्षम्य भोजन और प्रमाद आदि का त्याग ।

2- काम्य कर्मों का त्याग - स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति हेतु तथा रोग , संकट आदि की निवृत्ति हेतु निषिद्ध कर्मों का त्याग ।

3- तृष्णा का त्याग- अनैतिक तथा निषिद्ध इच्छाओं का त्याग ।

4- स्वार्थ हेतु दूसरों से सेवा कराने का त्याग - अपने सुख अथवा स्वार्थ सिद्धि हेतु किसी अन्य की बिना याचना सेवा लेना अथवा उसका प्रयोग करना या प्रयोग करने की इच्छाओं का त्याग ।

5 - सम्पूर्ण कर्तव्यों, कर्मों में आलस्य और फल की इच्छा का सर्वथा त्याग - इन्हें भी समझने हेतु कई वर्गों में बांटा जा सकता है -

5A - ईश्वर भक्ति में आलस्य का त्याग-
5B - ईश्वर की भक्ति में कामना का त्याग-
5C- देवताओं के पूजन में आलस्य व कामना का त्याग-
5D- माता पितादि गुरुजनों की सेवा में आलस्य और कामना का त्याग -
5E- यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कार्यों में आलस्य और कामना का त्याग - यहां यज्ञ का अर्थ पांच महायज्ञ (देवयज्ञ, ऋषियज्ञ, पितृ यज्ञ, नृयज्ञ तथा भूतयज्ञ ) है ।
5F- शरीर सम्बन्धी कार्यों में आलस्य और कामना का त्याग-

6- संसार के सम्पूर्ण पदार्थों में और कर्मों में ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग -

7- संसार, शरीर और सम्पूर्ण कर्मों में सूक्ष्म वासना और अहंभाव का सर्वथा त्याग-

अर्थात यदि सार रूप से कहा जाए तो सन्यास का अर्थ घर-बार, पशु-परिवार छोड़ना नहीं बल्कि सन्यास में जिन चीजो क् त्याग करना आवश्यक है वे हैं दुष्प्रवृत्तियाँ, कामना, आलस्य आदि तथा अपने समस्त कर्मों को अकर्ता के भाव से फल की इच्छा से मुक्त होकर कर्तव्य करना ही वास्तव में सन्यास है ।

दहेज

#शब्द_मीमांसा #7

शब्द - दहेज

शब्द संप्रेषक - कुलदीप राठी निंदाना जी


 हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति में 4 मान्य तथा 4 अमान्य प्रकार की विवाह पद्धतियां प्रचलित है । इसमें से आर्ष विवाह पद्धति में वर्णन है कि पिता वस्त्राभूषणों से सुसज्जित पुत्री का विवाह योग्य वर से करता है तथा उसे उपहार आदि प्रदान करता है । यहीं से दहेज की उत्पत्ति होती है ।

यदि हम दहेज के शाब्दिक अर्थ की बात करें तो पाते हैं "ददाति हिरण्यं जनक: " अर्थात पिता द्वारा दिया हिरण्य अर्थात स्वर्ण या धन" । यह वास्तव मे वही सहदायिक सम्पत्ति होती थी जो कि बेटी का पिता की सम्पत्ति में हिस्सा होता था ।

दहेज सहित समस्त धन जो कि स्त्री को प्राप्त होता है उसे स्त्रीधन से संज्ञापित किया जाता है अतः हम पहले स्त्रीधन की बात करते हैं पहले । याज्ञवल्क्य के अनुसार -

पितृमातृपतिभातृदत्त मध्यमग्नयुपागतं ।

आधिवेदनिकायं च स्त्रीधनं परिकीर्तितं ।।

अर्थात माता, पिता, पति तथा भाई द्वारा दिया गया उपहार तथा अध्याग्नि एवं अधिवेदनिक में प्राप्त उपहार आदि स्त्री की सम्पत्ति कही जाती है ।

स्मृतियों के अनुसार निनमलिखित 16 चीजे स्त्रीधन के अंतर्गत आती हैं ।

1- अध्यग्नि -- वैवाहिक अग्नि के सम्मुख दिया गया उपहार;

2- अध्यवह्निका- वधू को पतिगृह जाते समय दिया गया उपहार;

3- प्रीतिदत्त- सास- ससुर द्वारा स्नेहवश दिए गए उपहार ;

4- पतिदत्त- पति द्वारा दिये गए उपहार ;,

5- पदवंदनिका - नतमस्तक प्रणाम करते समय बड़ों द्वारा दिया गया उपहार;

6- अन्वयध्येयक- विवाह के बाद पति के परिवार द्वारा दिया गया उपहार ;

7- अधिवेदनिका- दूसरी वधू लाने पर प्रथम वधू को दिया गया उपहार;

8- शुल्क- विवाह हेतु प्रदान किया गया धन ;

9- वन्धुदत्त- माता पिता के सम्बन्धियों द्वारा दिया गया धन;

10- यौतिक - विवाह के समय जब पति पत्नी एक स्थान पर बैठे हों उस समय दिए गए उपहार;

11- आयौतिक - वे उपहार जो यौतिक के अतिरिक्त हैं;

12- सौदायिक - माता पिता अथवा भाई  से प्राप्त अचल संपत्ति;

13- असौदायिक- माता-पिता अथवा भाई से प्राप्त चल सम्पत्ति;

14- वृत्ति - भरण - पोषण के लिए दी गयी सम्पत्ति अथवा धन ;

15- पारिभाषिक- अग्नि के सम्मुख तथा वधु गमन के समय प्राप्त उपहार ; तथा

16- अन्य सम्पतियाँ जो किसी अन्य स्रोत से प्राप्त होती हैं ।

याज्ञवल्क्य के अनुसार -

दुर्भिक्षे धर्मकार्ये च व्यधौ सम्प्रतिरोधके ।

गृहीतं स्त्रीधनं भर्त्ता ब स्त्रीयै दातुम् अर्हति ।


अर्थात दुर्भिक्ष(अकाल), धर्म-कार्य तथा रोग - व्याधि आदि दशाओं को छोड़कर किसी अन्य दशा में यदि पति स्त्रीधन में से कुछ लेता है तो उसे लौटना आवश्यक है ।

अर्थात किसी भी तरह का धन जो पत्नी को प्राप्त हुआ है अथवा पत्नी के गृह से प्राप्त हुआ है उसपर पति का कोई अधिकार नहीं पत्नी की मृत्यु के उपरांत ही वो धन पति के अपत्यों को प्राप्त होता था । इस प्रकार धर्मतः दहेज के धन पर पति अथवा उसके परिवार वालों का कोई अधिकार ही नहीं रह जाता किन्तु ये नियम विकृत हो गया और आज के दौर में यह धन पति और उसके सम्बन्धियों के प्रयोग में आने लगा जिसके कारण दहेज मांगने की प्रथा का जन्म हुआ यदि यही विचलन रोक दिया जाए तो दहेज एक कुप्रथा न होकर फिर से अपने पूर्व सुंदर रूप स्त्रीधनं को प्राप्त कर लेगी ।

कला

#शब्द_मीमांसा #6

शब्द-कला

शब्द संप्रेषक - रमेशचन्द्र जोशी जी ।

दिनाँक - 15/06/2017

भारत एक उत्सव धर्मी राष्ट्र है हमने हमेशा अपनी अभिव्यक्ति को सुंदर स्वरूप देने का प्रयास किया यथा अभिव्यक्तियों को सुंदर रूप देने का प्रयास किया । जैसे मथुरा शैली की एक मूर्ति में जो कि बुद्ध के बुद्धत्व प्रप्ति की है  वो एक ऐसे व्यक्ति की मूर्ति है जिसने अभी अभी 12 वर्ष की तपस्या के उपरांत आंखे खोली हैं और मात्र एक कटोरा खीर का ग्रहण किया है किंतु उनका शरीर एक दिव्य अलौकिक आभा से चमक रहा है और कृषकाय होने के स्थान पर हष्ट पुष्ट है । हमने अपने भावों के इसी प्रकार की अभिव्यक्ति को कला शब्द से सम्बोधित करते हैं ।

कला शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की "कृ" धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है "कार्य करना" अर्थात "अपने कार्य द्वारा अपने मन के विचारों की अभिव्यक्ति" । मैथिली शरण गुप्त ने अपनी कृति साकेत में कहा है कि " अन्तःकरण की प्रवृत्तियों को व्यक्त करना ही कला है।"

वैसे तो कला के अनेक अर्थ हैं जैसे चन्द्रमा के घटने बढ़ने को कला कहा जाता है । समुद्र के घटने बढ़ने को भी कला कहते हैं । व्यक्ति के उम्र के साथ विकसित होने को भी कला कहा जाता है ।

कला शब्द का सबसे पहले प्रयोग भरतमुनि द्वारा अपने ग्रन्थ "नाट्यशास्त्र" में किया गया है इन्हें ही गायन का जनक माना जाता है  इन्होंने ही वेदों को संगीत बद्ध करने के लिए राग रागिनियों को धरती पर अवतरित किया ।

ललितविस्तार में 86 कलाओं का वर्णन है, प्रबन्ध कोष में 76 प्रकार की कलाएं उद्धरित है किंतु "क्षेमेन्द्र" की कृति "कलाविलास" में 318 (तीन सौ अठारह) प्रकार की कलाओं का वर्णन है जिनके विवरण इस प्रकार है -

A- 64 जीवनोपयोगी कलाएं ;
B- 32 धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष सम्बन्धी कलाएं ;
C- 32 मात्सर्य, शील , प्रभावमान सम्बन्धी कलाएं ;
D-  64 स्वच्छता सम्बन्धी कलाएं;
E-  64 वेश्याओं सम्बन्धी कलाएं ;
F - 10 भेषज कलाएं ;
G- 16 कायस्थ सम्बन्धी कलाएं; तथा
H- 100 सार कलाएं ।

किन्तु वात्स्यायन के कामसूत्र तथा उष्णश के शुक्रनीतिसार में मात्र 64 कलाओं का वर्णन है इसे ही प्रमाणिक माना गया है ।

कला के महत्व के बारे में कहा गया है - "कला गुण विहीन: नर: पशु पुच्छ विषाण हीन: ।। " अर्थात कला गुण विहीन व्यक्ति बिना सींग और पूछ के जानवर की तरह होता है ।

भारतीय कला का उल्लेख अथर्ववेद में किया गया है इसके उपवेद गन्धर्ववेद, धनुर्वेद आदि विभिन्न कलाओं पर आधारित है । भारतीय कलाओं की कुछ खास विशेषताएं है जो कुछ इस प्रकार है -

भारतीय कला की प्रथम विशेषता उसकी प्राचीनता है यहां पर भीमबेटका की गुफाओं के चित्र लगभग 5500 ई पू के माने जाते हैं ।

भारतीय कला संस्कृति प्रधान कला है इसमें भारतीय संस्कृति के सभी अंगों को अनुप्राणित किया गया है ।

क्षणे क्षणे यद नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया: । अर्थात जो प्रत्येक क्षण नवीनता को प्राप्त होता है यही शाश्वतता भारतीय कला की तृतीय विशेषता है ।

भारतीय कला की अगली विशेषता है कलाकार द्वारा श्रेय न लेना कलाकार ने अपना नाम कहीं अंकित नहीं किया है अपनी सम्पूर्ण कलाकृति में वह अपनी कला समाज को समर्पित करता है ।

भारतीय कला का विकास परम्परा द्वारा हुआ है , कोई अंधानुकरण नहीं किसी भी प्रभाव से परे तथा यह एक भावप्रधान कला है । इसने भारतीय संस्कृति की संवाहिका का कार्य भी किया है ।

भारतीय कला की अंतिम विशेषता है उसकी प्रतीकात्मकता , प्रत्येक चित्र का हर अंश एक दर्शन समाहित किये हुए है स्वयं में । आखिर गणपति का दांत एक ही क्यों है ? आखिर शिव ने विष को गले में ही क्यों धारण किया ? क्यों लक्ष्मी कमल पर आसीन है प्रत्येक चित्र के पीछे एक दर्शन है वे किसी न किसी बात के प्रतीक हैं ।

दिव्य

#शब्द_मीमांसा #5

शब्द -दिव्य

शब्द संप्रेषक -सारिका सौरभ जी

दिनाँक - 14/08/2017

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुनः ।।

श्रीमद्भागवतगीता अध्याय 4 श्लोक 9 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेते हैं वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता , किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है ।

उक्त श्लोक में भगवान कृष्ण स्वयं के जन्म और कर्म को दिव्य बताते हैं और दिव्य होने के कारण वे सामान्य मनुष्य के ज्ञान से परे हैं और जो इस दिव्यता को जान लेता है वह स्वयं को त्यागकर इसी दिव्यता का हिस्सा हो जाता है और वह स्वयं भी दिव्य हो जाता है ।

अब प्रश्न उठता है आखिर दिव्य क्या है जिसे भगवान ने इतना महत्वपूर्ण बताया है। वास्तव में "दिव्य" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के "दिव्" शब्द से हुई है जिसका अर्थ है "प्रकाश" अर्थात ऐसा अलौकिक प्रकाश जो कि समस्त दिशाओं को प्रकाशमान कर दे।  दिव् से ही दिवस तथा देवता शब्दों की उत्पत्ति भी हुई है ।

भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है कोई भी व्यक्ति दिव्य पद प्राप्त कर सकता है अर्थात देवता बन सकता है केवल उसे वे कर्म करने होंगे जो देवता के लिए आवश्यक हैं । शास्त्रों में वर्णित है कि यदि व्यक्ति सौ यज्ञ पूरा कर लेता है तो वह इंद्र बन जाता है । इसका उदाहरण महाराज नहुष रहे हैं जब इंद्र ने वृत्तासुर क् वध किया था तो उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगा था और उनका पतन हो गया था । किंतु नहुष को भी मद हो गया और इसी कारण वे सप्तऋषियों का अपमान करके दण्डित हुए और इंद्र पड़ से च्युत होना पड़ा । रामायण के अरण्यकांड में महर्षि बाल्मीकि ये उल्लेख किया है कि दिव्य पद पर आसीन लोगों के पुण्य गलतियां करने पर तेज़ी से क्षीण होते हैं और वे पदच्युत कर दिए जाते हैं ।

यहां यज्ञ शब्द का अर्थ हवन कुंड बनाकर उसमें हवि देना मात्र नहीं है । शास्त्रों में यज्ञ का अभिप्राय कर्तव्यों के निर्वहन से है न कि मात्र भौतिक अग्नि में आहुति हवि देने से । कुछ यज्ञ यथा "पंच दैनिक यज्ञ, सात पाकयज्ञ, सात हर्वियज्ञ, सात सोम यज्ञ आदि " इसी प्रकार से यज्ञों की सूची दी गयी है इनमें से जो अपने सौ यज्ञों को पूर्ण कर लेता है वह दिव्यता को प्राप्त कर देवता बन जाता है ।

इसी प्रकार दूसरा तथ्य होता है दिव्यता में समाहित हो जाने का जिसकी बात भगवान कृष्ण ने गीता में की है अर्थात जो उनके जन्म तथा कर्म की दिव्यता को जान लेता है वह उसी में समाहित हो जाता है अर्थात जो व्यक्ति उनके द्वारा स्थापित प्रतिमानों का पालन करता है तथा उनके कहे हुए शब्दों को धारण करता है वह स्वयं के अस्तित्व को त्यागकर उन्हीं की दिव्यता में शामिल होकर ईशत्व को प्राप्त होता है ।

इसी प्रकार जैन दर्शन में भी सामान्य व्यक्ति के द्वारा कैवल्य प्राप्त किये जाने के मार्ग का उल्लेख है और  कैवल्य वही दिव्यता है जबकि बौद्ध दर्शन इसी को बुद्धत्व से संज्ञापित करता है ।

सनातन

#शब्द_मीमांसा #4

शब्द- परम्परा

शब्द संप्रेषक - रमेशचन्द्र जोशी जी

दिनाँक - 13/08/2017

समय के लिहाज से परम्पराएं तीन प्रकार की होती है -

प्रथम पुरातन;
द्वितीय अधुनातन; तथा
तृतीय सनातन ।

पुरातन परम्पराएं वे हैं जो प्राचीन काल से प्रारम्भ हुई तथा अब विलुप्त हो चुकी हैं  जबकि अधुनातन परम्पराएं वे हैं जिनको बने हुए बने हुए अभी अधिक समय नहीं हुआ है तथा अभी प्रचलित हैं अर्थात मानव व्यवहार का आधार हैं ।

जबकि सनातन परम्पराएं वे हैं जो कि प्रारम्भ तो प्राचीन काल में हुई हैं किंतु मानव व्यवहार का आधार आधुनिक काल में भी बनी हुई हैं ।अर्थात उद्भव भले ही प्राचीन है किंतु नव समाज अभी भी उसपर आधारित है ।

सनातन को परिभाषित करते हुए कहा जाता है "सत्यं, नित्यं, नवीनं च यस्य सः" अर्थात जो सत्य है , नित्य है अर्थात जिसकी उत्पत्ति अन्यन्त प्राचीन है और लगातार अस्तित्व मे रही है तथा नवीन अर्थात आधुनिक काल में भी व्यवहार में है ।

ईश्वर को सनातन कहा गया है क्योंकि वह जगत निर्माण के पूर्व से विद्यमान है तहत सदैव विद्यमान रहा है एवं इस समय भी उसकी विद्यमानता अभिहित है । ठीक उसी प्रकार ईश्वर से उत्पन्न होने वाला जीव भी सनातन है । श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है -

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोपराणि ।"

अर्थात जिस प्रकार व्यक्ति व्यक्ति वस्त्र बदलता है उसी प्रकार जीव भी प्रत्येक चक्र के उपरांत स्वरूप बदलता है । किंतु सदैव सत्य,नित्य तथा नवीन बना रहता है ।

इसी प्रकार कभी कभार प्रश्न उठता है यदि ईश्वर नित्य है तो अलग अलग कालों में उसकी भिन्न भिन्न रूपों में पूजा क्यों होती है कभी किसी को अधिक महत्व किसी को कम । यथा ऋग्वैदिक काल में इंद्र, अग्नि , वरुण आदि रूपों में उत्तर वैदिक कालों मे क्रमशः रुद्र, विष्णु , ब्रह्मा आदि का महत्व फिर महाकाव्य काल के उपरांत राम , कृष्ण आदि रूपों में । इसका उत्तर भी भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में दिया है -

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां ।
धर्म संस्थापनाय संभवामि युगे युगे ।।"

अर्थात साधुता को संश्रय देने हेतु तथा दुष्ट प्रवृत्तियों को विनष्ट करने के लिए मैं विभिन्न कालों में भिन्न भिन्न रूपों में अवतरित होता हूँ । दुष्ट प्रवृत्ति का अर्थ मात्र रावण, कंस अथवा हिरणकश्यप ही नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को दूर करने के लिए जिन सिद्धांतो तथा गुणों की अवष्यकता होती है उस काल में ईश्वर उन्हीं सिद्धांतो तथा गुणों के साथ अवतरित होता है तथा लोगो  द्वारा उनका पालन करवा कर तथा स्वयं करके एक प्रतिमान स्थापित करता है तथा उसकी प्रतिमा ( आदर्श) को पूजते हुए व्यक्ति उन प्रतिमानों के पालन द्वारा समाज की दुष्प्रवृत्तियों से रक्षा करता है तथा ईश्वर का वही जीव अंश बना रहता है जिसका उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया है -

"ईश्वर अंश जीव अविनाशी........."

इसीलिए विभिन्न कालो में नए रूपों में उन्हीं नियमों का हम पालन करते हैं जी सनातन चले आ रहे हैं । भारत में इन्हीं कर्तव्यों तथा नियमों को "धर्म" शब्द से सम्बोधित किया गया है अतैव इन्हें ही हम "सनातन धर्म" कह सकते हैं ।

नमो महेशं जगतगुरुं जयतु त्रिपुर विनाशकं ।
नमो अरिहंतम् बुद्धि विद्या प्रदायतुम ।।

संस्कार

#शब्द_मीमांसा #3

शब्द - संस्कार ।

शब्द संप्रेषक - रमेशचंद्र जोशी जी ।

दिनाँक - 12/08/2017

भारतीय संस्कृति में समाज का एक सूत्र वाक्य है -

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः  ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिददुःखभागभवेत ।।

अर्थता सभी व्यक्ति सुखी और निरोग हो ,सभी सुंदर दिखे तथा कोई दुःख को न प्राप्त हो । अतः समाज को व्यवस्थित करने हेतु प्राचीन भारत में आश्रम, पुरुषार्थ तथा संस्कारों की व्यवस्था की गई है ।

संस्कारों को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि किसी के शुद्धिकरण की प्रक्रिया ही संस्कार कहलाती है अर्थात
"संस्करोति यस्य सः संस्कारः" यानी जो शुद्धिकरण करे वही संस्कार ।
यूं तो संस्कार के अनेक अर्थ बतलाए गए हैं मसलन शुद्ध करना, पूर्व मनःस्थिति, पूर्व स्थितियों के कारण उत्पन्न आदतें आदि किन्तु प्राचीन भारतीय सभ्यता में जिसे आज हम हिन्दू संस्कृति से संज्ञापित करते हैं वहां संस्कार का अर्थ होता है शुध्द करना अथवा किसी को संस्कृत और सभ्य बनाना । अरस्तू ने भी कहा है "व्यक्ति हाड़ मांस के एक लोथड़े के रूप मेंजन्म लेता है किन्तु उसे मनुष्य समाज बनाता है ।" परंतु भारतीय मनीषियों ने उससे हज़ारों वर्ष पूर्व ही मनुष्य बनाने की प्रणाली विकसित कर ली थी उस लोथड़े से ।

संस्कार के प्रयोजनों के बारे में #जैमिनी ने #पूर्वमीमांसा में लिखा है कि इसके दो प्रयोजन है - प्रथम तो जिसके होने पर कोई पदार्थ योग्य होता है तथा द्वितीय यह कि ये भावना विकसित हो कि संस्कारो से व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है ।

वास्तव में संस्कारों का उल्लेख ऋगवेद में नहीं किया गया है सबसे पहले अथर्ववेद में तीन संस्कार बताये गए हैं उपनयन, विद्यारम्भ तथा विवाह । अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन करना अशुभ माना गया है । किंतु स्मृतिकारों म् सभी संस्कारो का वर्णन किया है और भिन्न भिन्न ने अलग अलग संख्या बताई है । गौतम ऋषि के अनुसार इनकी संख्या 40 है जी की निम्न लिखित हैं

गर्भधान, पुंसवन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौलकर्म, उपनयन, वेदों के चार व्रत ( महानाम्नी, महाव्रत, उपनिषद, गोदान) , स्नान, विवाह, पांच दैनिक महायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ), सात पाक यज्ञ ( सांध्य होम, प्रातः होम, नवस्थली पाक, बलियज्ञ, पितृयज्ञ, अष्टक,पशुयज्ञ ) सात हर्वियज्ञ ( अग्न्याधेय, अग्निहोत्र,पूर्णमास, दर्शयज्ञ, नवेष्ठियज्ञ, चातुर्मास्य यज्ञ, पशुबन्ध यज्ञ) तथा सात सोमयज्ञ (अग्निष्टोम, अतिअग्निष्टोम, उकथ्य, षोडशिमान, वाजपेय, अतिरात्रि, आप्तोर्याम ) ।

अंगिरा ने इसकी संख्या 25 बताई है तो वशिष्ठ ने 17 मनु ने 13 कहा है आपस्तम्ब ने 12 बताई है किंतु #स्वामी_दयानंद_सरस्वती ने अपनी संस्कार विधि तथा #पंडित_भीमसेन_शर्मा ने अपनी "षोडस संस्कार विधि" में इनकी संख्या 16 बताई है तथा वर्तमान में इन्हें ही माना जाता है । जो कि अग्रवर्णित हैं -

1- गर्भधारण संस्कार- इसमें प्रजापति के 3 मंत्रों द्वारा प्रजापति का आह्वान किया जाता है ।

2- पुंसवन संस्कार - गर्भ के तीसरे माह हस्त, मूल, श्रवण, पुनर्वसु, मृगशिरा अथवा पुष्य नक्षत्रों में जीव-पुत्र मन्त्र द्वारा किया जाता है ।

3- सीमान्तोन्नयन संस्कार - इसमें वीणा वादन की धुन के मध्य मंत्रोच्चार पूर्वक पुरुष स्त्री की मांग दूब के तीन तिनकों से अथवा फलयुक्त गूलर की टहनी से भरता है तथा क्षेत्र में बहने वाली नदी का नाम लेता है ।

4- विष्णुवलि संस्कार - गर्भ के आठवें महीने पद्म या स्वास्तिक की वेदी बनाकर ओदन (भात) की चौसठ आहुतियां विष्णु को दी जाती हैं ।

5- जातकर्म संस्कार - इसमें सरसों की धूनी दी जाती है और पिता पृथ्वी से प्रार्थना करता है कि कभी इससे वियोग न हो । प्रार्थना करता है बच्चा पत्थर की तरह दृढ़, लोहे की तरह रक्षक तथा स्वर्ण की तरह तपाये जाने पर भी कांतिमय बना रहे ।

6- नामकरण संस्कार - नामकरण संस्कार जन्म के दसवे या बारहवें दिन तीन बार स्नान के बाद किया जाता है ।

7- निष्क्रमण संस्कार - इसमें आंगन में स्वास्तिक वेदी बनाकर उसपर लावे छिड़ककर लाकर बच्चे को सूर्य का दर्शन करवाया जाता है ।

8- अन्नप्राशन संस्कार -प्रायः आठवें महीने तीन मन्त्र जिनका अर्थ है इस अन्न से हमें शक्ति मिले, स्वाद मिले, सुगन्ध का आनन्द मिले गाते हुए दूध में पके चावल की खीर खिलाई जाती है ।

9- चौलकर्म संस्कार - यह जन्म के प्रथम, तृतीय या पांचवे वर्ष जन्मकालिक केशों का मुंडन कराया जाता है ।

10- विद्यारम्भ संस्कार - इसमें विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती, ऋषियों तथा कुलदेवता की आरती की जाती है तथा घृत की आहुति भी दी जाती है तथा किसी फलवाले वृक्ष की टहनी से ॐ सरस्वत्यै नमः , श्री गणेशाय नमः, ॐ सिद्धाय नमः लिखवाया जाता है ।

11-उपनयन संस्कार - उपनयन का अर्थ होता है गुरु के पास ले जाना । अथर्ववेद में लिखा हुआ है आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन करते हुए मानो गर्भ में धारण करते हैं तीन दिन बाद उत्पन्न होता है जिसे देखने के लिए देवताओं की भीड़ एकत्रित होती है ।

12- वेदारम्भ संस्कार - इसमें चार प्रकार के व्रतों का आरंभ सम्मिलित है जो हैं - महानाम्नी, महाव्रत, उपनिषद, गोदान ।

13- चूड़ाकर्म संस्कार - पहले यह दाढ़ी-मूंछ के केश दिखाने पर किया जाता था किंतु अब 12-16 वर्ष के मध्य किया जाता है इस संस्कार ये युवक एक नई अवस्था में प्रवेश करता है ।

14 - समावर्तन संस्कार - समावर्तन अर्थात घर लौटना इसमें व्यक्ति अपने घर लौटता है तथा स्नान करके ब्रह्मचारी के वस्त्र त्यागकर गृहस्थ के वस्त्र धारण करता है । इस संस्कार में मित्र तथा वरुण देव की स्तुति की जाती है ।

15- विवाह संस्कार -विवाह संस्कार

16- अंत्येष्ठि संस्कार - अंत्येष्ठि का अर्थ होता है अंतिम यज्ञ । हिन्दू दर्शन में मृत्यु अंत नहीं बल्कि प्रारम्भ है एक नई यात्रा का इस शरीर के कर्मों को त्याग कर नवीन कर्मों को धारण करने की यात्रा का द्वार है ।

दस इन्द्रिय, एक मन तथा अंतःकरण, चित्त, बुद्धि अहंकार और आत्मा का पुनः संयोजन एवं पोषण हेतु 16 पिंडदान किये जाते हैं ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ये संस्कार मानव जीवन को व्यवस्थित रुप से जीने तथा देवताओं को धन्यवाद ज्ञापित करने के साधन हैं ।

निर्ऋति त्वं अजर लोकोपकारकः शिवं ।
नमस्तुभ्यं महरुद्रे जगतसंहार रूपिणं ।।

महुआ

#शब्द_मीमांसा

शब्द- महुआ

शब्द संप्रेषक -सारिका सौरभ जी

दिनाँक-11/08/2017

 बगिया में बोले कोइलिया हो, भइले भिनसार ।
बीनेली महुआ चंगेलिया हो, सखी सुकुमार हो ।।
दूर आसमनवा में सुकवा उगल बा, गते-गते होत अंजोर ।
बड़की बगइचा में बोले पपिहरा, बनवा में बोलेला मोर हो ।

उपरोक्त वर्णन है बसन्त का जिसमें कवि कहता है कि बागों में कोयल बोलने लगी और सुबह हो गयी है । सुकुमारी सखियां चंगेरी (टोकरी) लेकर महुआ बीन (चुन) रही हैं । दूर आसमान में ब्रह्ममुहूर्त में उगने वाला शुक्र ग्रह दिख रहा है और धीरे धीरे उजाला हो रहा है । बड़ी बाग में पपीहा और जंगल मे मोर बोल रहे हैं ।

इसी प्रकार एक अन्य भोजपुरी गीत में कहा गया है -

आम लगी घन महुआ, बीचे राह लागी ।
ताही पर सुन्नर ठाढ़ नयनवां में नीर ठारी ।

अर्थात एक तरफ मंजरियों से लदे हुए आम के वृक्ष खड़े है दूसरी तरफ महुआ के वृक्ष बीच में रास्ता है उसपर एक सुंदर नवोढ़ा आंखों में जल भरकर खड़ी अपने प्रिय की राह देख रही है ।

हमारे ग्रामीण परिवेश में वसंत का अर्थ आनन्द होता है और वसंत आने से पूर्व वृक्ष अपना सर्वस्व त्याग कर देते है ताकि उनपर नई कोपलें, मंजरियाँ और पुष्प आ सके ऐसा प्रतीत होता है जैसे नव सृष्टि सृजन हेतु कोई नवोढ़ा अपने मायके का सर्वस्व त्याग करके ससुराल में कदम रखती है । इनमें से के वृक्ष जो सबसे पहले वसंत के आगमन की सूचना देता है वो है महुआ । महुआ को संस्कृत भाषा में "मधुक" कहते हैं अर्थात

"मधुरस्य कारणं सः" यानी जो मधुरता का कारण है वही मधुक है । वास्तव में यह मधुरता मात्र मिठाई नहीं है यह जीवन के हर क्षेत्र में मधुरता प्रदान करता है यदि महुआ का तना उत्तम कोटि का फर्नीचर देता है तो पुष्प भोजन और मध्वा प्रदान करता है फल औषधि प्रदान करता है और पत्तियां  इन सबको रखने के लिए पात्र बन जाती हैं ।

महुआ का तना उत्तम कोटि का फर्नीचर प्रदान करता है , वास्तु शास्त्र के अनुसार घर के मुख्यद्वार की देहरी या चौखट महुआ की लकड़ी से बनाये जाने पर घर में लक्ष्मी तथा सरस्वती दोनों का वास होता है घर में प्रतिष्ठा , सम्पत्ति एवम आनन्द की प्राप्ति होती है इसके टिकाऊपन के बारे में कहा गया है -

"सौ खड़े सौ पड़े" अर्थता महुआ का वृक्ष 100 सालों तक खड़ा रहता है और उसके फर्नीचर की आयु भी सौ साल होती है । ।

महुआ का पुष्प सर्वाधिक प्रसिद्ध उत्पाद है वृक्ष का इसे कवियों ने खूब गाया है । हरिबंश राय बच्चन लिखते है -

महुआ के नीचे मोती झरे,
यह खेल हंसी,
यह फांस फंसी,
यह पीर किसी से मत कह रे ।

गांव में रहने वालों को बखूबी याद होगा वो बसन्त के बीस - बाइस दिन सुबह जागकर टोकरियाँ लेकर भागना बाग की तरफ और झरते हुए मोतियों को बीनना(चुनना) जिनकी सुंगन्ध में मतवारे होकर मधुमक्खियां और भ्रमर भागे चले आते थे । कवि राधेश्याम मित्र की कुछ पंक्तियां याद आती है -

महुआ-वन तन-मन में महक उठे,
आओ हम बाहों में गीत-गीत हो जाएं ।

बचपन में उछलते कूदते या खेलते समय अगर जोर की चोट लग गयी तो महुआ बांध दिया गया , आज कुछ खास बनना है महुआ की मौहरी( पूड़ी) और दूध में पकाया गया महुआ आनंद आ गया । जब मन में उमंग हो इसे महुआ के आसवन से बना पेय जिसे संस्कृत मे "मध्वा" कहा गया वो बना लोगों ने पिया और आनन्द का उन्माद बह चला । यजुर्वेद संहिता के त्रयोदश अध्याय में इसी मध्वा को देवताओं को चढ़ाए जाने का उल्लेख है । उज्जैन में भैरव को इसी मध्वा का भोग लगाया जाता है । किसी कवि ने महुआ की इसी मादकता को चुराने का आरोप बसंती हवा पर लगाया है -

फागुन के आते ही, जैसे निकल पड़े है वायु के पर ।
झूम रही है वायु बसन्ती,नवल खुशी तन मन में भरकर।
महुआ पी वायु इठलाती, कभी पुष्प से गन्ध चुराती ।
उपवन की हरियाली के संग , मंद मंद मंद हरपल मुस्काती ।

बात करते है महुआ के फल की इसे भारत के भिन्न भिन्न हिस्सों में भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है इसे उत्तर प्रदेश में "कोइनी" कहते है किन्तु ज्यादातर हिस्सों में इसे "कलेंदी" कहते है। इस फल का प्रत्येक हिस्सा उपयोगी होता है बीज को निकालकर सब्जी  बनाई जाती है तथा बीज से तेल निकाला जाता है वैसे देखने में यह घी सदृश दिखता है तथा सामान्य ताप पर जमा रहता है । भेषज संहिता में इसके फल को शीतल, शुक्रजनक, धातु तथा बलबर्धक, वात, पित्त, त्रिपा, दाह श्वास, क्षयी आदि का शमन करने वाला बताया गया है । तेल को कफ, पित्त तथा दाह नाशक बताया गया है । महुआ की छाल रक्तपित्तनाशक तथा प्राणशोधक मानी गयी गई ।महुआ की पत्तियों का अर्क सर्प विष को उतारने वाला बताया गया है । इसकी पत्तियों से बने पत्तलों का उपयोग उत्सवों में भोजन आदि ग्रहण हेतु किया जाता है ।

यदि हम महुआ को दार्शनिक रूप में देखें तो यह सम्पूर्ण शिव अर्थात कल्याणकारी है । इस वृक्ष में कोई ऐसा तत्व नहीं है जो जीवों के लिए लाभकारी, गुणकारी तथा आनंदकारी न हो । यह वृक्ष सही मायने में पृथ्वी पर कल्पतरु है ।

Tuesday, August 29, 2017

शब्द मीमांसा (1) - शब्द

#शिव_उवाच - #शब्द_मीमांसा

विषय- शब्द ।

शब्द संप्रेषक - मोटाभाई कनाणी ।

शिव कहते हैं कि - सम्प्रेषित विचारों को ग्रहण करने के आधार पर तीन भागों में बांटा जा सकता है -
प्रथम नेत्रग्राह्य, द्वितीय श्रोतग्राह्य तथा तृतीय स्पर्शग्राह्य । इनमें से श्रोतग्राह्य के रूप में उन्ही को ग्रहण किया जा सकता है जो भी ध्वनि अथवा सम्भाषण के माध्यम से आते है तथा सम्भाषण के लिए भाषा की आवश्यकता होती है क्योंकि भाषा की परिभाषा ही यही है,-

"भाष्यते इति भाषा"

अर्थात जिसे बोला जा सकता है वही भाषा है । भाषा की इकाई "ध्वनि" होती है तथा जब ध्वनि को लिखित रूप में व्यक्त करते हैं तो उसे "वर्ण"कहते हैं । वर्णों के मेल से ही शब्द का उदय होता है ।

शब्द को परिभाषित करते हुए कहा गया है "भाष् व्यक्ता याँ शब्द:" अर्थात जो भाषा को व्यक्त करता है वही शब्द है ।

प्रश्न - हे शिव! शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई ?

शिव कहते हैं यूं तो शब्द की उत्पत्ति परमात्मा द्वारा बनाये गए ऋत बिंदु के विस्फोट के साथ "ॐ" के रूप में हो गयी थी । किन्तु इसे पृथ्वी के मानवों तक पंहुचाने का श्रेय नटराज को है -

"नृत्यावसाने नटराज राजः, ननादि ढक्काम नौपंच बार: "

अर्थात एक बार नृत्य के दौरान भगवान नटराज ने नौ तथा पांच अर्थात चौदह (14) बार अपना डमरू बजाया जिससे चौदह सूत्रों का उद्भव हुआ जिसमें समस्त शब्द और वर्ण समाहित है । जिसे पाणिनि ने अपने ग्रन्थ में स्थान दिया है ।

प्रश्न - हे शिव!क्या शब्द का एकमात्र अर्थ यही भाषा के शब्द है ?

शिव कहते हैं - नहीं "शब्द" के अनेक अर्थ हैं उनमें से कुछ की व्याख्या करता हूँ ।
पांच महाभूतों में से द्वितीय आकाश के गुण को शब्द कहा गया है ।
फलित ज्योतिष में एक नक्षत्र समूह जिसमें उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद तथा रोहिणी आते हैं उन्हें भी शब्द से संज्ञापित किया गया है ।
व्याकरण में "रगण" का अठारहवां भेद जिसमें पहले एक लघु, एक गुरु तथा तीन लघु (llSl) आते हैं को भी शब्द कहा जाता है ।
तालू में एक शब्द नाम का रोग होता है जिस रोग में तालू  में ललाई तथा सूजन आ जाती है ।
सोमरस का वह भाग जो प्रातःकाल से सायंकाल तक बिना किसी देवता को अर्पित किए रखा रहता है उसे भी शब्द कहते हैं ।
इसी प्रकार पदार्थों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों आदि को मिलाकर लगभग 22 अर्थ होते हैं इस शब्द के ।

प्रश्न- हे शिव ! शब्द के इतने अर्थ है किंतु भाषा के शब्दों का अर्थ समझने के साधन क्या हैं ?

शिव कहते हैं - न्याय सिद्धांत मुक्तावली - शब्दखण्ड मे उल्लिखित है -

शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्त वाक्याद् व्यव्हारतश्च ।
वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति सन्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धा: ।।

अर्थात शब्दों के अर्थग्रहण के आठ साधन माने गए हैं -
व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवाक्य, लोकव्यवहार, वाक्यशेष, विवृत्ति तथा सिद्धपद का सानिध्य ।

प्रश्न -हे शिव ! भाषा के शब्दों के कितने भेद होते हैं ?

शिव कहते हैं - विभिन्न आधारों पर भिन्न - भिन्न भेद नहीं शब्दों के -
व्युत्पत्ति के आधार पर तीन भेद रूढ़, यौगिक तथा योगारूढ़ होते हैं ।

प्रयोग के आधार पर इनके आठ भेद होते हैं क्रमशः - संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया , क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक तथा विस्मयादिबोधक जिसमें से अंतिम चार प्रकार के शब्दों को हम सम्मिलित रूप से "अव्यय" कहते हैं । इन आठों को हम दो भागों में बांट सकते हैं "विकारी तथा अविकारी" शब्द ।

 अर्थ की दृष्टि से  शब्द दो प्रकार के होते हैं निरर्थक तथा सार्थक शब्द ।
शब्दों की अर्थग्रहण की प्रक्रिया को "शब्दों की शक्ति" कहा जाता है ये तीन प्रकार की क्रमशः अमिधा, लक्षणा तथा व्यंजना होती है ।

धन्यवाद हे पन्नगभूषणं शब्द उत्पत्तादि हेतवे ।
गंगा जटाजूट स्थितं नमामि हे पार्वती पतये ।।