Wednesday, August 30, 2017

महुआ

#शब्द_मीमांसा

शब्द- महुआ

शब्द संप्रेषक -सारिका सौरभ जी

दिनाँक-11/08/2017

 बगिया में बोले कोइलिया हो, भइले भिनसार ।
बीनेली महुआ चंगेलिया हो, सखी सुकुमार हो ।।
दूर आसमनवा में सुकवा उगल बा, गते-गते होत अंजोर ।
बड़की बगइचा में बोले पपिहरा, बनवा में बोलेला मोर हो ।

उपरोक्त वर्णन है बसन्त का जिसमें कवि कहता है कि बागों में कोयल बोलने लगी और सुबह हो गयी है । सुकुमारी सखियां चंगेरी (टोकरी) लेकर महुआ बीन (चुन) रही हैं । दूर आसमान में ब्रह्ममुहूर्त में उगने वाला शुक्र ग्रह दिख रहा है और धीरे धीरे उजाला हो रहा है । बड़ी बाग में पपीहा और जंगल मे मोर बोल रहे हैं ।

इसी प्रकार एक अन्य भोजपुरी गीत में कहा गया है -

आम लगी घन महुआ, बीचे राह लागी ।
ताही पर सुन्नर ठाढ़ नयनवां में नीर ठारी ।

अर्थात एक तरफ मंजरियों से लदे हुए आम के वृक्ष खड़े है दूसरी तरफ महुआ के वृक्ष बीच में रास्ता है उसपर एक सुंदर नवोढ़ा आंखों में जल भरकर खड़ी अपने प्रिय की राह देख रही है ।

हमारे ग्रामीण परिवेश में वसंत का अर्थ आनन्द होता है और वसंत आने से पूर्व वृक्ष अपना सर्वस्व त्याग कर देते है ताकि उनपर नई कोपलें, मंजरियाँ और पुष्प आ सके ऐसा प्रतीत होता है जैसे नव सृष्टि सृजन हेतु कोई नवोढ़ा अपने मायके का सर्वस्व त्याग करके ससुराल में कदम रखती है । इनमें से के वृक्ष जो सबसे पहले वसंत के आगमन की सूचना देता है वो है महुआ । महुआ को संस्कृत भाषा में "मधुक" कहते हैं अर्थात

"मधुरस्य कारणं सः" यानी जो मधुरता का कारण है वही मधुक है । वास्तव में यह मधुरता मात्र मिठाई नहीं है यह जीवन के हर क्षेत्र में मधुरता प्रदान करता है यदि महुआ का तना उत्तम कोटि का फर्नीचर देता है तो पुष्प भोजन और मध्वा प्रदान करता है फल औषधि प्रदान करता है और पत्तियां  इन सबको रखने के लिए पात्र बन जाती हैं ।

महुआ का तना उत्तम कोटि का फर्नीचर प्रदान करता है , वास्तु शास्त्र के अनुसार घर के मुख्यद्वार की देहरी या चौखट महुआ की लकड़ी से बनाये जाने पर घर में लक्ष्मी तथा सरस्वती दोनों का वास होता है घर में प्रतिष्ठा , सम्पत्ति एवम आनन्द की प्राप्ति होती है इसके टिकाऊपन के बारे में कहा गया है -

"सौ खड़े सौ पड़े" अर्थता महुआ का वृक्ष 100 सालों तक खड़ा रहता है और उसके फर्नीचर की आयु भी सौ साल होती है । ।

महुआ का पुष्प सर्वाधिक प्रसिद्ध उत्पाद है वृक्ष का इसे कवियों ने खूब गाया है । हरिबंश राय बच्चन लिखते है -

महुआ के नीचे मोती झरे,
यह खेल हंसी,
यह फांस फंसी,
यह पीर किसी से मत कह रे ।

गांव में रहने वालों को बखूबी याद होगा वो बसन्त के बीस - बाइस दिन सुबह जागकर टोकरियाँ लेकर भागना बाग की तरफ और झरते हुए मोतियों को बीनना(चुनना) जिनकी सुंगन्ध में मतवारे होकर मधुमक्खियां और भ्रमर भागे चले आते थे । कवि राधेश्याम मित्र की कुछ पंक्तियां याद आती है -

महुआ-वन तन-मन में महक उठे,
आओ हम बाहों में गीत-गीत हो जाएं ।

बचपन में उछलते कूदते या खेलते समय अगर जोर की चोट लग गयी तो महुआ बांध दिया गया , आज कुछ खास बनना है महुआ की मौहरी( पूड़ी) और दूध में पकाया गया महुआ आनंद आ गया । जब मन में उमंग हो इसे महुआ के आसवन से बना पेय जिसे संस्कृत मे "मध्वा" कहा गया वो बना लोगों ने पिया और आनन्द का उन्माद बह चला । यजुर्वेद संहिता के त्रयोदश अध्याय में इसी मध्वा को देवताओं को चढ़ाए जाने का उल्लेख है । उज्जैन में भैरव को इसी मध्वा का भोग लगाया जाता है । किसी कवि ने महुआ की इसी मादकता को चुराने का आरोप बसंती हवा पर लगाया है -

फागुन के आते ही, जैसे निकल पड़े है वायु के पर ।
झूम रही है वायु बसन्ती,नवल खुशी तन मन में भरकर।
महुआ पी वायु इठलाती, कभी पुष्प से गन्ध चुराती ।
उपवन की हरियाली के संग , मंद मंद मंद हरपल मुस्काती ।

बात करते है महुआ के फल की इसे भारत के भिन्न भिन्न हिस्सों में भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है इसे उत्तर प्रदेश में "कोइनी" कहते है किन्तु ज्यादातर हिस्सों में इसे "कलेंदी" कहते है। इस फल का प्रत्येक हिस्सा उपयोगी होता है बीज को निकालकर सब्जी  बनाई जाती है तथा बीज से तेल निकाला जाता है वैसे देखने में यह घी सदृश दिखता है तथा सामान्य ताप पर जमा रहता है । भेषज संहिता में इसके फल को शीतल, शुक्रजनक, धातु तथा बलबर्धक, वात, पित्त, त्रिपा, दाह श्वास, क्षयी आदि का शमन करने वाला बताया गया है । तेल को कफ, पित्त तथा दाह नाशक बताया गया है । महुआ की छाल रक्तपित्तनाशक तथा प्राणशोधक मानी गयी गई ।महुआ की पत्तियों का अर्क सर्प विष को उतारने वाला बताया गया है । इसकी पत्तियों से बने पत्तलों का उपयोग उत्सवों में भोजन आदि ग्रहण हेतु किया जाता है ।

यदि हम महुआ को दार्शनिक रूप में देखें तो यह सम्पूर्ण शिव अर्थात कल्याणकारी है । इस वृक्ष में कोई ऐसा तत्व नहीं है जो जीवों के लिए लाभकारी, गुणकारी तथा आनंदकारी न हो । यह वृक्ष सही मायने में पृथ्वी पर कल्पतरु है ।

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