Tuesday, September 26, 2017

प्रेम

#शब्द_मीमांसा 15

शब्द - प्रेम

शब्द संप्रेषक - मनीष जैन जी ।

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एक मनु मोरा ।।
सो मनु रहत सदा तोहिं पाही । जानु प्रीति रस एतनेहु माही ।।

इसमें सीता माता हो हनुमान जी भगवान राम का उनके प्रति प्रेम का वर्णन करते हुए कहते है । "मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ इस रहस्य को मात्र मेरा मन ही जानता है और वो मन भी सदैव तुम्हारे साथ ही रहता है ।"

सूरदास जी लिखते हैं -
"उद्धव मन न भये दस बीस , एक रह्यो सो गयो श्याम संग ।" 

यहां पर उद्धव जब गोपियों को ब्रह्मज्ञान देने की बात करते हैं तो वे कहती हैं , हे उद्धव! हमारे पास कोई दस या बीस मन तो हैं नहीं हमारा प्रेम भगवान कृष्ण के साथ इतना प्रगाढ़ है कि एक मन था वो भी उन्हीं के साथ चला गया अब आपका ब्रह्मज्ञान हम क्योंकर ले पाएंगे ?

प्रेम तो ऐसा भी होता है की एक बाघम्बर धारी अवधूत के लिए पार्वती समस्त वैभव छोड़कर भी तप करती हैं । सीता पति के साथ वन में अनेक कष्ट सहती है । राम इसी प्रेम के लिए पिता के दिये हुए वचन पूरा करने के लिए वन गमन करते हैं। महाराज शिवि का जीवों के प्रति इतना प्रेम हैं कि वे एक कबूतर को बचाने के लिए अपने शरीर का मांस काटकर तौल देते हैं । दधीचि को समाज और सृष्टि से इतना प्रेम कि अपनी अस्थियं तक दान कर दीं समाज के लिए । भगवान को भक्त से इतना प्रेम कि नङ्गे पैर दौड़ आते हैं और मुट्ठीभर चावल के बदले तिहूंपुर का राज दे देते हैं । सैनिक का प्रेम तो देखिए साहब वो अपनी मातृभूमि से इतना प्रेम करता है अपने प्रिय, परिजन और परिवार के प्रेम की बलि देकर खुद को निछावर कर देता है खुशी खुशी । भगीरथ का प्रेम देखिये उद्देश्य के लिए की कठिन तप करके गङ्गा को ही धरती पर ला दिया ।

यही नहीं प्रेम की महिमा का गान करते हुए बाइबिल भी अध्याय 23 योहन्ना 4 में लिखता है "प्रेम ही परमेश्वर है।" सूफी मत ईश्वर को ही इश्क कहता है । इश्क के तो प्रकार बताता है प्रथम इश्क हकीकी और इश्क मजीदी । इसी इश्क हक़ीक़ी की पराकाष्ठा में कबीर दास लिखते हैं -

"राम देव संग भाँवर लेहूँ धनि धनि भाग हमार ।"

बात करते हैं इस "प्रेम" शब्द के अर्थ की हम पाते है "प्रियं रमन्ति मनसा" अर्थात जब आपके मन में आपका प्रिय रमण करने लगे वही स्थिति प्रेम है ।

यदि हम ईप्सा के आधार पर देखें तो पाते हैं प्रेम के दो भेद हैं । जिसमें प्रथम है निष्काम प्रेम जिसमें कोई कामना कोई इच्छा नहीं होती व्यक्ति को अपने प्रिय से यहां तक प्रिय की इच्छा के बिना उसके सानिध्य की भी इच्छा नहीं । जब व्यक्ति का सर्वस्व उसका प्रिय ही होता है । इसे उच्चतम स्थान प्राप्त है ।

दूसरा प्रकार है प्रेम का सकाम प्रेम अर्थात प्रिय से कुछ इच्छाएं तथा अपेक्षाएं रखता है व्यक्ति उसकी परिस्थितियां और स्वयं के समर्पण को देखकर । किन्तु यह ध्यातव्य है कि सकाम प्रेम और स्वार्थ दोनों में अंतर होता है । सकाम प्रेम वास्तव में सहजीविता है प्रिय और प्रिया के मध्य दोनो एक दूसरे के लिए कुछ करते हैं और प्राप्ति की इच्छा भी रखते हैं देश और काल के अनुसार किन्तु स्वार्थ में एक पक्ष येन केन प्रकारेण अपनी इच्छाओं की पूर्ति के मन्तव्य रखता है । सकाम प्रेम को निम्न माना गया है तथा स्वार्थ को निकृष्टतम ।

अक्सर लोग सुंदर कांड का चौथाई दोहा दोहराते हैं - "भय बिनु होहिं न प्रीति" । क्या सच में प्रेम का एक मात्र कारण भय ही है  या और कुछ भी । वास्तव में प्रेम के दो कारण हैं ज्ञान तथा भय ।

प्रथम ज्ञान से निष्काम प्रेम का जन्म होता है जो कि पराकाष्ठा है प्रेम की । यह स्थाई होता है बिल्कुल ज्ञान की तरह जैसे ज्ञान कभी समाप्त नही होता सदैव बढ़ता जाता है वैसे ही ज्ञान आधारित प्रेम भी बढ़ता जाता है कभी समाप्त नहीं होता ।

द्वितीय कारण भय है प्रेम का; यह भय किसी भी वस्तु का हो सकता है , दण्ड का भय अथवा कुछ खो जाने या कुछ न प्राप्त कर पाने का  तथा यह उतना ही स्थाई होता है जितना कि भय, भय समाप्त होते ही यह प्रेम भी समाप्त हो जाता है ।

माता- पिता तथा गुरुजनों का प्रेम ममता तथा स्नेह कहलाता है जो हमें सदैव शिखर पर प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है ।

प्रेम यदि प्रेयसी या प्रिय से हो जाये तो उसे प्रीति कहते हैं।  इसमें महादेव से लेकर देवदास तक कि श्रेणियां हैं । यहां पर असफलता उग्रता, दीनता तथा हीनता का कारण बनती है । महादेव का सती के प्रति प्रेम ही था कि सती के आत्मदाह के उपरांत महादेव के तांडव से सृष्टि का नाश होना प्रारम्भ हो गया था । एक प्रेम का वर्णन कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने किया है लिखते हैं -

एक पुरुष जो बज्र इंद्र का झेल सकता है,
सिंह की बाहों में भी खेल सकता है ।........
बिद्ध हो जाता बंकिम नयन के बाण से,
रूपसी है जीत लेती उसको मधुर मुस्कान से ।।

पुरु जैसे योध्दा का विजय रथ भी रुक जाता है इस प्रेम के आगे और उर्वशी के वियोग में वो दीनता को प्राप्त करते हैं । मेनकाएँ विश्वामित्रो की साधना भंग कर देती हैं ऐसा भी होता है ये प्रेम । दूसरी तरफ इसी प्रेम के कारण व्यक्ति को पार्वती मिलती है और वो शक्ति के साथ मिलकर शिव अर्थात कल्याण और सृजन की मूर्ति बन जाता है ।

जब ईश्वर से प्रेम होता है तो उसे भक्ति कहते हैं और ईश्वर को जब भक्त से प्रेम होता है तो वत्सलता कहलाता है और प्रेम विवश होकर नङ्गे पैर दौड़ पड़ते हैं भगवान ।

जब समकक्षों के साथ प्रेम हो जाये तो मित्रता कहलाती है । तथा यही प्रेम जब आपके अधीनस्थ आपसे करते हैं तो अनुशासन कहलाता है । इस प्रेम के बहुत रूप हैं और हर रूप में यह कल्याण ही करता है व्यक्ति का यदि इसके पथ से व्यक्ति विचलित न हो ।

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