Wednesday, August 30, 2017

सनातन

#शब्द_मीमांसा #4

शब्द- परम्परा

शब्द संप्रेषक - रमेशचन्द्र जोशी जी

दिनाँक - 13/08/2017

समय के लिहाज से परम्पराएं तीन प्रकार की होती है -

प्रथम पुरातन;
द्वितीय अधुनातन; तथा
तृतीय सनातन ।

पुरातन परम्पराएं वे हैं जो प्राचीन काल से प्रारम्भ हुई तथा अब विलुप्त हो चुकी हैं  जबकि अधुनातन परम्पराएं वे हैं जिनको बने हुए बने हुए अभी अधिक समय नहीं हुआ है तथा अभी प्रचलित हैं अर्थात मानव व्यवहार का आधार हैं ।

जबकि सनातन परम्पराएं वे हैं जो कि प्रारम्भ तो प्राचीन काल में हुई हैं किंतु मानव व्यवहार का आधार आधुनिक काल में भी बनी हुई हैं ।अर्थात उद्भव भले ही प्राचीन है किंतु नव समाज अभी भी उसपर आधारित है ।

सनातन को परिभाषित करते हुए कहा जाता है "सत्यं, नित्यं, नवीनं च यस्य सः" अर्थात जो सत्य है , नित्य है अर्थात जिसकी उत्पत्ति अन्यन्त प्राचीन है और लगातार अस्तित्व मे रही है तथा नवीन अर्थात आधुनिक काल में भी व्यवहार में है ।

ईश्वर को सनातन कहा गया है क्योंकि वह जगत निर्माण के पूर्व से विद्यमान है तहत सदैव विद्यमान रहा है एवं इस समय भी उसकी विद्यमानता अभिहित है । ठीक उसी प्रकार ईश्वर से उत्पन्न होने वाला जीव भी सनातन है । श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है -

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोपराणि ।"

अर्थात जिस प्रकार व्यक्ति व्यक्ति वस्त्र बदलता है उसी प्रकार जीव भी प्रत्येक चक्र के उपरांत स्वरूप बदलता है । किंतु सदैव सत्य,नित्य तथा नवीन बना रहता है ।

इसी प्रकार कभी कभार प्रश्न उठता है यदि ईश्वर नित्य है तो अलग अलग कालों में उसकी भिन्न भिन्न रूपों में पूजा क्यों होती है कभी किसी को अधिक महत्व किसी को कम । यथा ऋग्वैदिक काल में इंद्र, अग्नि , वरुण आदि रूपों में उत्तर वैदिक कालों मे क्रमशः रुद्र, विष्णु , ब्रह्मा आदि का महत्व फिर महाकाव्य काल के उपरांत राम , कृष्ण आदि रूपों में । इसका उत्तर भी भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में दिया है -

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां ।
धर्म संस्थापनाय संभवामि युगे युगे ।।"

अर्थात साधुता को संश्रय देने हेतु तथा दुष्ट प्रवृत्तियों को विनष्ट करने के लिए मैं विभिन्न कालों में भिन्न भिन्न रूपों में अवतरित होता हूँ । दुष्ट प्रवृत्ति का अर्थ मात्र रावण, कंस अथवा हिरणकश्यप ही नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को दूर करने के लिए जिन सिद्धांतो तथा गुणों की अवष्यकता होती है उस काल में ईश्वर उन्हीं सिद्धांतो तथा गुणों के साथ अवतरित होता है तथा लोगो  द्वारा उनका पालन करवा कर तथा स्वयं करके एक प्रतिमान स्थापित करता है तथा उसकी प्रतिमा ( आदर्श) को पूजते हुए व्यक्ति उन प्रतिमानों के पालन द्वारा समाज की दुष्प्रवृत्तियों से रक्षा करता है तथा ईश्वर का वही जीव अंश बना रहता है जिसका उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया है -

"ईश्वर अंश जीव अविनाशी........."

इसीलिए विभिन्न कालो में नए रूपों में उन्हीं नियमों का हम पालन करते हैं जी सनातन चले आ रहे हैं । भारत में इन्हीं कर्तव्यों तथा नियमों को "धर्म" शब्द से सम्बोधित किया गया है अतैव इन्हें ही हम "सनातन धर्म" कह सकते हैं ।

नमो महेशं जगतगुरुं जयतु त्रिपुर विनाशकं ।
नमो अरिहंतम् बुद्धि विद्या प्रदायतुम ।।

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