#शब्द_मीमांसा #14A
शब्द - गुण (सात्विक)
शब्द संप्रेषक - अभिजीत दत्त जी ।
दिनाँक - 26/08/2017
तीनो गुणों में प्रथम और सर्वोच्च गुण है सत अथवा सात्विकता । श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी कहते हैं -
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतं ।
अफल प्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्चते ।। (गीता 18/23)
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो - वह सात्विक कहा जाता है ।
आगे श्लोक 26 में श्रीभगवान कहते हैं जो कर्ता संगरहित , अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष शोकादि विकारों से रहित है - वह सात्विक कहा जाता है ।
श्लोक 29 में अभिवर्णित किया गया है कि जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग अर्थात गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति का त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए है तथा निवृत्ति मार्ग अर्थात देह का अभिमान त्यागने वाला, कर्तव्य और अकर्तव्य, भय तथा अभय को एवं बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है ।
चरक संहिता के द्वितीयखण्ड के पंचम अध्याय जिसे शारीरस्थानम् नाम से शीर्षित किया गया है में इस सात्विक चित्त के सात भेद बताये गए हैं जो कि क्रमशः -
सात्विक चित्त का प्रथम भेद है ब्राह्म । इसके गुणों के वर्णन इस प्रकार है - जो पवित्र, सत्यप्रतिज्ञ, जितात्मा, सम्पत्ति और सत्फ़ल को अन्यों के साथ बांटकर भोगने वाला, ज्ञान-विज्ञान, वचन-प्रतिवचन की शक्ति से युक्त, स्मृतिमान काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, मोह, ईर्ष्या, हर्ष और क्रोध से रहित, सब प्राणियों में समबुद्धि रखने वाला हो उसे ब्राह्म प्रकृति का जानें ।
द्वितीय सात्विक चित्त है आर्ष । जिसका वर्णन है - जो यज्ञ करने वाला, अध्ययनशील, व्रत का पालक, होमशील, ब्रह्मचर्य का पालक, अतिथिपूजक, मद, मान, राग, द्वेष, मोह, लोभ और रोष से रहित, प्रतिभा से युक्त वचन, विज्ञान, उपधारणा इन शक्तियों से सम्पन्न पुरुष हो उसको आर्षचित्त वाला जानें ।
तृतीय सात्विक चित्त का प्रकार है ऐन्द्र । जो ऐश्वर्यवान, ग्रहण करने योग्य वाक्य वाला, यज्ञ करने वाला, शूर, ओजस्वी, तेज़ से युक्त, साहसिक, क्रूर कर्मों को न करने वाला, दूरदर्शी, धर्म, अर्थ और काल दत्तचित्त पुरुष को "ऐन्द्र" समझें ।
चतुर्थ सात्विक चित्त का भेद है याम्य । जो कर्तव्य और अकर्तव्य की मर्यादा में रहने वाला, प्राप्तकारी अर्थात अवसर के अनुसार कार्य करने वाला, असंप्रहार्य अर्थात जिसपर कोई प्रहार न कर सके और न ही जिसकी मार रोकी जा सके, उन्नतिशील, स्मृतिवान, ऐश्वर्यशील, राग, द्वेष, मोह से रहित पुरुष हो उसको याम्य जाने ।
पंचम भेद वारुण का वर्णन है - जो शूरवीर, धीर, पवित्र और मैलेपन से द्वेष करने वाला, यज्ञ करने वाला, जलक्रीड़ा में रत, क्लिष्ट कर्मों से भिन्न सुख से होने वाले कर्मों को करने वाला, उचित स्थान पर कोप तथा कृपा करने वाला पुरुष हो उसको वारुण जानें ।
षष्ठ भेद है सात्विक चित्त का "कौबेर" । जो स्थान, मान, उपभोग, सामग्री, परिवार से युक्त, नित्य शर्म, अर्थ और काम में तत्पर, पवित्र, सुखपूर्वक विहार विनोद करने वाला, उचित स्थान पर कोप व प्रसन्नता प्रकट करने वाला पुरुष हो उसको कौबेर प्रकृति का जानें ।
सप्तम तथा अंतिम भेद है सात्विक चित्त का जिसे गांधर्व से संज्ञापित करते हैं । जो नृत्य, गीत, बाजे, स्त्रोत, श्लोक, आख्यायिका, इतिहास, पुराणों को पसन्द करने वाला, इनमें कुशल, सुगन्ध, माला, अनुलोम, वस्त्र, स्त्रियों के साथ विहार करने वाला, अनिंद्य पुरुष हो उसको "गांधर्व" जाने ।
शब्द - गुण (सात्विक)
शब्द संप्रेषक - अभिजीत दत्त जी ।
दिनाँक - 26/08/2017
तीनो गुणों में प्रथम और सर्वोच्च गुण है सत अथवा सात्विकता । श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी कहते हैं -
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतं ।
अफल प्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्चते ।। (गीता 18/23)
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो - वह सात्विक कहा जाता है ।
आगे श्लोक 26 में श्रीभगवान कहते हैं जो कर्ता संगरहित , अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष शोकादि विकारों से रहित है - वह सात्विक कहा जाता है ।
श्लोक 29 में अभिवर्णित किया गया है कि जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग अर्थात गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति का त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए है तथा निवृत्ति मार्ग अर्थात देह का अभिमान त्यागने वाला, कर्तव्य और अकर्तव्य, भय तथा अभय को एवं बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है ।
चरक संहिता के द्वितीयखण्ड के पंचम अध्याय जिसे शारीरस्थानम् नाम से शीर्षित किया गया है में इस सात्विक चित्त के सात भेद बताये गए हैं जो कि क्रमशः -
सात्विक चित्त का प्रथम भेद है ब्राह्म । इसके गुणों के वर्णन इस प्रकार है - जो पवित्र, सत्यप्रतिज्ञ, जितात्मा, सम्पत्ति और सत्फ़ल को अन्यों के साथ बांटकर भोगने वाला, ज्ञान-विज्ञान, वचन-प्रतिवचन की शक्ति से युक्त, स्मृतिमान काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, मोह, ईर्ष्या, हर्ष और क्रोध से रहित, सब प्राणियों में समबुद्धि रखने वाला हो उसे ब्राह्म प्रकृति का जानें ।
द्वितीय सात्विक चित्त है आर्ष । जिसका वर्णन है - जो यज्ञ करने वाला, अध्ययनशील, व्रत का पालक, होमशील, ब्रह्मचर्य का पालक, अतिथिपूजक, मद, मान, राग, द्वेष, मोह, लोभ और रोष से रहित, प्रतिभा से युक्त वचन, विज्ञान, उपधारणा इन शक्तियों से सम्पन्न पुरुष हो उसको आर्षचित्त वाला जानें ।
तृतीय सात्विक चित्त का प्रकार है ऐन्द्र । जो ऐश्वर्यवान, ग्रहण करने योग्य वाक्य वाला, यज्ञ करने वाला, शूर, ओजस्वी, तेज़ से युक्त, साहसिक, क्रूर कर्मों को न करने वाला, दूरदर्शी, धर्म, अर्थ और काल दत्तचित्त पुरुष को "ऐन्द्र" समझें ।
चतुर्थ सात्विक चित्त का भेद है याम्य । जो कर्तव्य और अकर्तव्य की मर्यादा में रहने वाला, प्राप्तकारी अर्थात अवसर के अनुसार कार्य करने वाला, असंप्रहार्य अर्थात जिसपर कोई प्रहार न कर सके और न ही जिसकी मार रोकी जा सके, उन्नतिशील, स्मृतिवान, ऐश्वर्यशील, राग, द्वेष, मोह से रहित पुरुष हो उसको याम्य जाने ।
पंचम भेद वारुण का वर्णन है - जो शूरवीर, धीर, पवित्र और मैलेपन से द्वेष करने वाला, यज्ञ करने वाला, जलक्रीड़ा में रत, क्लिष्ट कर्मों से भिन्न सुख से होने वाले कर्मों को करने वाला, उचित स्थान पर कोप तथा कृपा करने वाला पुरुष हो उसको वारुण जानें ।
षष्ठ भेद है सात्विक चित्त का "कौबेर" । जो स्थान, मान, उपभोग, सामग्री, परिवार से युक्त, नित्य शर्म, अर्थ और काम में तत्पर, पवित्र, सुखपूर्वक विहार विनोद करने वाला, उचित स्थान पर कोप व प्रसन्नता प्रकट करने वाला पुरुष हो उसको कौबेर प्रकृति का जानें ।
सप्तम तथा अंतिम भेद है सात्विक चित्त का जिसे गांधर्व से संज्ञापित करते हैं । जो नृत्य, गीत, बाजे, स्त्रोत, श्लोक, आख्यायिका, इतिहास, पुराणों को पसन्द करने वाला, इनमें कुशल, सुगन्ध, माला, अनुलोम, वस्त्र, स्त्रियों के साथ विहार करने वाला, अनिंद्य पुरुष हो उसको "गांधर्व" जाने ।
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