Wednesday, August 30, 2017

अन्याय

#शब्द_मीमांसा #12

शब्द - अन्याय

शब्द संप्रेषक - आशीष अग्रवाल जी ।

दिनाँक - 22/08/2017

हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि "अन्याय पूर्वक अर्जित किया हुआ धन केवल दस वर्षों तक  जीवित रहता है ग्यारहवें वर्ष उसका अवश्य ही नाश हो जाता है । वास्तव में अन्याय एक नकारात्मक अवधारणा है  । अन्याय से आशय होता है जहाँ न्याय नहीं होता है । अर्थात जहां न्याय की आशा अथवा इच्छा की जाती है किंतु न्याय प्राप्त नहीं होता । परन्तु न्याय की मांग या आशा न किये जाने पर अथवा न्याय प्राप्त करने हेतु स्वयं क्रियाशील न होने पर अधिकारों का लोप अन्याय नहीं है ।

यदि हम अन्याय शब्द को परिभाषित करने का प्रयत्न करें तो पाते हैं कि "अन्याय किसी व्यक्ति के प्राप्त होने वाले अधिकारों का लोप किया जाना है।"

अन्याय की तीन श्रेणियां होती हैं -

अन्याय की प्रथम श्रेणी है न्याय ही नहीं दिया जाना । इसके अंतर्गत किसी व्यक्ति को प्राप्त होने वाले अधिकारों का आहरण बिना किसी कारण के कर लिया जाता है तथा उसके प्रयासों के उपरांत  भी उसे युक्तियुक्त तौर पर अपने अधिकार नहीं प्राप्त होते हैं ।

अन्याय का दूसरा स्तर है न्याय प्रदान करने में देर किया जाना । जब न्याय प्रदान करने में इतना देर हो जाये जब विक्षुब्ध व्यक्ति के लिए उक्त न्याय अथवा अधिकार का औचित्य एवं अर्थ खत्म हो जाता है वह भी अन्याय की श्रेणी में आता है ।

तृतीय है न्याय के सिद्धांतों का पालन न किया जाना, किसी भी न्याय निर्णयन में । नैसर्गिक न्याय अथवा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतो का पालन किया जाना आवश्यक है न्याय निर्णयन में इसके कुछ सिद्धांत इस प्रकार है -

  1- कोई भी व्यक्ति स्वयं के मामले में न्यायधीश नहीं हो सकता है । अर्थात न्याय निर्णयन में किसी भी पक्षकार को न्यायाधीश बनने की इजाजत नहीं दी जा सकती है क्योंकि ऐसे मामलात में व्यक्ति न चाहते हुए भी पक्षपात कर लेता है, जिससे कि न्याय की अवधारणा को चोट पंहुचती है ।

2- द्वितीय है निर्णय को कारण सहित दिया जाना चाहिए । यदि न्याय देना है तो आवश्यक है कि अधिकारों को दिए जाने अथवा उसका लोप किये जाने का कारण बताया जाना चाहिए ताकि पक्षकार संतुष्ट हो सके कि ऐसा क्यों किया गया यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो वह न्याय की श्रेणी में नहीं आता है ।

3- तृतीय है पक्षकारों को सुना जाना चाहिए तथा उन्हें इसका पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए कि वे अपना पक्ष रख सकें । इस सिद्धांत के दो हिस्से होते हैं प्रथम सूचना दिया जाना तथा दूसरा सुनवाई का पर्याप्त अवसर दिया जाना क्योंकि हम बिना किसी को अवसर दिए यदि एक पक्ष को सुनकर निर्णय देते हैं तो वह अन्याय कहलायेगा ।

किन्तु कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जहां इन नियमों का पालन किया जाना आवश्यक नहीं होता है और उन्हें अन्याय की श्रेणी में भी नहीं रखा जाता है -

प्रथम आपातकाल में अपवर्जन , क्योंकि धर्मों में आपद्धर्म को उच्चतम माना गया है जहां पर अन्याय से विक्षुब्ध होने वाले कि अपेक्षा उससे लाभान्वित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है ।

जहां लोकहित जुड़ा हुआ है वहां ओर न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना आवश्यक नहीं है ।क्योंकि लोकहित का पलड़ा हमेशा किसी भी न्याय या अन्याय से भारी होता है ।

जहां पर न्याय के इन नियमों को लागू किया जाना अव्यहारिक हो । वहां पर इनको न लागू किया जाना कोई अन्याय नहीं है ।

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