Wednesday, August 30, 2017

आश्रम

#शब्द_मीमांसा #11

शब्द- आश्रम

शब्द संप्रेषक - अंकुर पंड्या जी ।

दिनाँक - 20/08/2017

जैसा कि सर्वविदित है कि भारतीय संस्कृति में जीवन के अभी अंगों को व्यवस्थित करने का चलन रहा है । जीवन को व्यवस्थित करने हेतु आश्रम तथा पुरुषार्थ का प्रणयन किया गया है ।मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत होता है वह संस्कारो द्वारा ही संस्कृत और प्रबुद्ध हो जाता है और यही संस्कार आश्रम व्यवस्था के आधार हैं ।

अमरकोश के टीकाकार भानुजी दीक्षित के अनुसार आश्रम शब्द की उत्पत्ति "श्रम"शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है मेहनत करना अथवा पुरुषार्थ करना । सामान्य तौर पर आश्रम शब्द के तीन अर्थ प्रचलित है -

1- वह स्थिति या स्थान जहां पर श्रम किया जाता है ।
2- स्वयं श्रम अथवा तपस्या करना । तथा
3- विश्रामावस्था ।

वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनमें मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अवस्था की उपलब्धियों को प्राप्त करके तथा इनसे विश्राम लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की तरफ प्रस्थान करता है ।

मनुष्य के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्षों का होना चाहिए (शतायुर्वे पुरुषः) एतएव चार आश्रमों में विभाजन 25-25 वर्ष का होना चाहिए प्रत्येक मनुष्य के जीवन की चार अवस्थाएं मोटे तौर पर मानी जाती है -

1-बाल्यकाल तथा किशोरावस्था;
2- यौवन;
3- प्रौढ़ावस्था;  तथा
4- वृद्धावस्था ।

इन्ही अवस्थाओं के आलोक में चार आश्रमों की व्यवस्था की गई है । आश्रमों के नाम तथा क्रम में कहीं कहीं अंतर पाया जाता है -

आपस्तम्ब गृहसूत्र के अनुसार गृहस्थ, आचार्यकुलम (ब्रह्मचर्य) , मौन तथा वानप्रस्थ हैं ।

गौतम धर्मसूत्र के अनुसार आश्रमों के नाम क्रमशः ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु तथा वैखानस हैं ।

वशिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार आश्रमों की व्यवस्था क्रमशः ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा परिव्राजक हैं ।

किन्तु मनु द्वारा बताए गए चार आश्रम और उनके क्रम ही सबसे ज्यादा प्रचलित हैं जो इस प्रकार हैं ।

प्रथम है ब्रह्मचर्य आश्रम । इस आश्रम में प्रवेश व्यक्ति उपनयन संस्कार के उपरांत करता है तथा चूड़ाकर्म के बाद निकल कर बाहर आता है । इस आश्रम में मात्र धर्म नामक पुरुषार्थ को स्थान दिया गया है । मनु के अनुसार ब्रह्मचर्य में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत का पालन करना चाहिए ।

द्वितीय आश्रम को मनु ने गृहस्थ नाम दिया है । यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है । इस आश्रम में व्यक्ति का प्रवेश विवाह संस्कार के साथ करता है । इस आश्रम में चारो पुरुषार्थों का पालन करना पड़ता है अर्थात उसे धर्मपूर्वक अर्थ का अर्जन करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन अकर्ता की भांति अथवा फल की इच्छा से मुक्त होकर (जिसे मोक्ष कहा गया है) करना चाहिए । मनुस्मृति के अनुसार गृहस्थ आश्रम में विवाह करके घर बसाना चाहिए तथा सन्तानोतपत्ति द्वारा पितृ ऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण तथा नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषि ऋण चुकाना चाहिए ।

तृतीय आश्रम को मनु ने वानप्रस्थ कहा है । वन का अर्थ मात्र जंगल ही नहीं होता अपितु उसके अन्य अर्थ जल तथा समाज भी होते हैं । यहां वन का अर्थ समाज है अर्थात समाज की तरफ प्रस्थान कर देना ही वानप्रस्थ है । इस आश्रम में पुरुषार्थ के रूप में मात्र धर्म, काम तथा मोक्ष होते हैं अर्थात अब व्यक्ति को अनासक्त भाव से समाज की तरफ प्रस्थान कर देना चाहिए । मनु के अनुसार इस आश्रम में व्यक्ति को सामरिक कार्यों से उदासीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि द्वारा वन में जीवन बिताना चाहिए ।

चतुर्थ आश्रम को सन्यास नाम से संज्ञापित किया गया है । सन्यास अर्थात आप अब परिवार के ही नहीं बल्कि समाज के भी हो जाते हैं आप स्वयं को एक न्यास के रूप में परिवर्तित कर देते हैं । मनु ने भी कहा है इस आश्रम में व्यक्ति सांसारिक सम्बन्धों को त्यागकर अनागरिक हो जाता है ।

सार रूप से हम देखते हैं कि हमारे जीवन को अवस्थाओं के अनुसार संस्कार और पुरुषार्थों को व्यवस्थित करने की एक प्रक्रिया बनाई गई है जिसे हम आश्रम नाम से उद्बोधित करते हैं ।

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