Wednesday, August 30, 2017

संस्कार

#शब्द_मीमांसा #3

शब्द - संस्कार ।

शब्द संप्रेषक - रमेशचंद्र जोशी जी ।

दिनाँक - 12/08/2017

भारतीय संस्कृति में समाज का एक सूत्र वाक्य है -

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः  ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिददुःखभागभवेत ।।

अर्थता सभी व्यक्ति सुखी और निरोग हो ,सभी सुंदर दिखे तथा कोई दुःख को न प्राप्त हो । अतः समाज को व्यवस्थित करने हेतु प्राचीन भारत में आश्रम, पुरुषार्थ तथा संस्कारों की व्यवस्था की गई है ।

संस्कारों को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि किसी के शुद्धिकरण की प्रक्रिया ही संस्कार कहलाती है अर्थात
"संस्करोति यस्य सः संस्कारः" यानी जो शुद्धिकरण करे वही संस्कार ।
यूं तो संस्कार के अनेक अर्थ बतलाए गए हैं मसलन शुद्ध करना, पूर्व मनःस्थिति, पूर्व स्थितियों के कारण उत्पन्न आदतें आदि किन्तु प्राचीन भारतीय सभ्यता में जिसे आज हम हिन्दू संस्कृति से संज्ञापित करते हैं वहां संस्कार का अर्थ होता है शुध्द करना अथवा किसी को संस्कृत और सभ्य बनाना । अरस्तू ने भी कहा है "व्यक्ति हाड़ मांस के एक लोथड़े के रूप मेंजन्म लेता है किन्तु उसे मनुष्य समाज बनाता है ।" परंतु भारतीय मनीषियों ने उससे हज़ारों वर्ष पूर्व ही मनुष्य बनाने की प्रणाली विकसित कर ली थी उस लोथड़े से ।

संस्कार के प्रयोजनों के बारे में #जैमिनी ने #पूर्वमीमांसा में लिखा है कि इसके दो प्रयोजन है - प्रथम तो जिसके होने पर कोई पदार्थ योग्य होता है तथा द्वितीय यह कि ये भावना विकसित हो कि संस्कारो से व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है ।

वास्तव में संस्कारों का उल्लेख ऋगवेद में नहीं किया गया है सबसे पहले अथर्ववेद में तीन संस्कार बताये गए हैं उपनयन, विद्यारम्भ तथा विवाह । अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन करना अशुभ माना गया है । किंतु स्मृतिकारों म् सभी संस्कारो का वर्णन किया है और भिन्न भिन्न ने अलग अलग संख्या बताई है । गौतम ऋषि के अनुसार इनकी संख्या 40 है जी की निम्न लिखित हैं

गर्भधान, पुंसवन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौलकर्म, उपनयन, वेदों के चार व्रत ( महानाम्नी, महाव्रत, उपनिषद, गोदान) , स्नान, विवाह, पांच दैनिक महायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ), सात पाक यज्ञ ( सांध्य होम, प्रातः होम, नवस्थली पाक, बलियज्ञ, पितृयज्ञ, अष्टक,पशुयज्ञ ) सात हर्वियज्ञ ( अग्न्याधेय, अग्निहोत्र,पूर्णमास, दर्शयज्ञ, नवेष्ठियज्ञ, चातुर्मास्य यज्ञ, पशुबन्ध यज्ञ) तथा सात सोमयज्ञ (अग्निष्टोम, अतिअग्निष्टोम, उकथ्य, षोडशिमान, वाजपेय, अतिरात्रि, आप्तोर्याम ) ।

अंगिरा ने इसकी संख्या 25 बताई है तो वशिष्ठ ने 17 मनु ने 13 कहा है आपस्तम्ब ने 12 बताई है किंतु #स्वामी_दयानंद_सरस्वती ने अपनी संस्कार विधि तथा #पंडित_भीमसेन_शर्मा ने अपनी "षोडस संस्कार विधि" में इनकी संख्या 16 बताई है तथा वर्तमान में इन्हें ही माना जाता है । जो कि अग्रवर्णित हैं -

1- गर्भधारण संस्कार- इसमें प्रजापति के 3 मंत्रों द्वारा प्रजापति का आह्वान किया जाता है ।

2- पुंसवन संस्कार - गर्भ के तीसरे माह हस्त, मूल, श्रवण, पुनर्वसु, मृगशिरा अथवा पुष्य नक्षत्रों में जीव-पुत्र मन्त्र द्वारा किया जाता है ।

3- सीमान्तोन्नयन संस्कार - इसमें वीणा वादन की धुन के मध्य मंत्रोच्चार पूर्वक पुरुष स्त्री की मांग दूब के तीन तिनकों से अथवा फलयुक्त गूलर की टहनी से भरता है तथा क्षेत्र में बहने वाली नदी का नाम लेता है ।

4- विष्णुवलि संस्कार - गर्भ के आठवें महीने पद्म या स्वास्तिक की वेदी बनाकर ओदन (भात) की चौसठ आहुतियां विष्णु को दी जाती हैं ।

5- जातकर्म संस्कार - इसमें सरसों की धूनी दी जाती है और पिता पृथ्वी से प्रार्थना करता है कि कभी इससे वियोग न हो । प्रार्थना करता है बच्चा पत्थर की तरह दृढ़, लोहे की तरह रक्षक तथा स्वर्ण की तरह तपाये जाने पर भी कांतिमय बना रहे ।

6- नामकरण संस्कार - नामकरण संस्कार जन्म के दसवे या बारहवें दिन तीन बार स्नान के बाद किया जाता है ।

7- निष्क्रमण संस्कार - इसमें आंगन में स्वास्तिक वेदी बनाकर उसपर लावे छिड़ककर लाकर बच्चे को सूर्य का दर्शन करवाया जाता है ।

8- अन्नप्राशन संस्कार -प्रायः आठवें महीने तीन मन्त्र जिनका अर्थ है इस अन्न से हमें शक्ति मिले, स्वाद मिले, सुगन्ध का आनन्द मिले गाते हुए दूध में पके चावल की खीर खिलाई जाती है ।

9- चौलकर्म संस्कार - यह जन्म के प्रथम, तृतीय या पांचवे वर्ष जन्मकालिक केशों का मुंडन कराया जाता है ।

10- विद्यारम्भ संस्कार - इसमें विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती, ऋषियों तथा कुलदेवता की आरती की जाती है तथा घृत की आहुति भी दी जाती है तथा किसी फलवाले वृक्ष की टहनी से ॐ सरस्वत्यै नमः , श्री गणेशाय नमः, ॐ सिद्धाय नमः लिखवाया जाता है ।

11-उपनयन संस्कार - उपनयन का अर्थ होता है गुरु के पास ले जाना । अथर्ववेद में लिखा हुआ है आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन करते हुए मानो गर्भ में धारण करते हैं तीन दिन बाद उत्पन्न होता है जिसे देखने के लिए देवताओं की भीड़ एकत्रित होती है ।

12- वेदारम्भ संस्कार - इसमें चार प्रकार के व्रतों का आरंभ सम्मिलित है जो हैं - महानाम्नी, महाव्रत, उपनिषद, गोदान ।

13- चूड़ाकर्म संस्कार - पहले यह दाढ़ी-मूंछ के केश दिखाने पर किया जाता था किंतु अब 12-16 वर्ष के मध्य किया जाता है इस संस्कार ये युवक एक नई अवस्था में प्रवेश करता है ।

14 - समावर्तन संस्कार - समावर्तन अर्थात घर लौटना इसमें व्यक्ति अपने घर लौटता है तथा स्नान करके ब्रह्मचारी के वस्त्र त्यागकर गृहस्थ के वस्त्र धारण करता है । इस संस्कार में मित्र तथा वरुण देव की स्तुति की जाती है ।

15- विवाह संस्कार -विवाह संस्कार

16- अंत्येष्ठि संस्कार - अंत्येष्ठि का अर्थ होता है अंतिम यज्ञ । हिन्दू दर्शन में मृत्यु अंत नहीं बल्कि प्रारम्भ है एक नई यात्रा का इस शरीर के कर्मों को त्याग कर नवीन कर्मों को धारण करने की यात्रा का द्वार है ।

दस इन्द्रिय, एक मन तथा अंतःकरण, चित्त, बुद्धि अहंकार और आत्मा का पुनः संयोजन एवं पोषण हेतु 16 पिंडदान किये जाते हैं ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ये संस्कार मानव जीवन को व्यवस्थित रुप से जीने तथा देवताओं को धन्यवाद ज्ञापित करने के साधन हैं ।

निर्ऋति त्वं अजर लोकोपकारकः शिवं ।
नमस्तुभ्यं महरुद्रे जगतसंहार रूपिणं ।।

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