Wednesday, August 30, 2017

मोक्ष

#शब्द_मीमांसा #9

शब्द - मोक्ष

शब्द संप्रेषक - प्रीति सिंह

दिनाँक - 18/08/2017

सर्वधर्मान्परित्यज्य नामेकं शरणंब्रज: ।
अहम् त्वाम् सर्वपापेभ्यो मोक्षं स्याति मा शुचः ।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं हे पार्थ! अपने सभी धर्मो का त्याग करके मेरी शरण में आ जाओ मैं तुम्हे समस्त पापोंसे मोक्ष दे दूंगा ।

इसी प्रकार भारतीय संस्कृति में भी व्यक्ति के चार पुरुषार्थ बताये गए हैं जिसमें से चौथा पुरुषार्थ है है मोक्ष ।

मोक्ष शब्द का शाब्दिक अर्थ देखा जाय तो होता है "मा इच्छाम्" अर्थात जब व्यक्ति की कोई इच्छा शेष न रह जाये । दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति की समस्त इच्छाओं का शमन हो जाये उसी स्थिति को मोक्ष कहा गया है ।

इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अर्थ भी इस शब्द से सम्बद्ध है जैसे मुक्त करना, क्षमा करना, समाप्त कर देना आदि ।किन्तु विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतो में इसके जो अर्थ प्रयुक्त किये जाते हैं वे कुछ इस प्रकार हैं ।

संख्या दर्शन जिसे गीता में संन्यास दर्शन भी कहा गया है के अनुसार मोक्ष का तात्पर्य है व्यक्ति के पुरुष तत्व को प्रकृति तत्व से अलग करके पुरुष तत्व को परमपुरुष तत्व में विलीन कर देना ही मोक्ष है ।

गीता के कर्मयोग के अनुसार व्यक्ति द्वारा अकर्ता बनकर कर्म करना अर्थात सात्विक कर्मों को करते हुए उनके फलों के प्रति अनासक्ति ही मोक्ष है ।

भक्तियोग के अनुसार जीव का ईश्वर के साथ एकाकार हो जाना ही मोक्ष है । अर्थात ईश्वर को जानना और उसकी दिव्यता मे समाहित हो जाना ।

बौद्ध दर्शन में मोक्ष की स्थिति को निर्वाण कहा गया है । भगवान बुद्ध के अनुसार यह संसार दुःखमय है तथा दुःखों का कारण तृष्णा अर्थात इच्छाएं हैं और इन्हीं इच्छाओं की समाप्ति ही मोक्ष अर्थात निर्वाण है ।

जैन दर्शन केअनुसार चरमस्थिति अर्थात मोक्ष को कैवल्य कहा गया है । कैवल्य को प्राप्त करने वाले मनीषी को अर्हत कहा जाता है । जैन धर्म के दर्शन स्यादवाद के अंतर्गत माना जाता है कि किसी भी पदार्थ की सात अवस्थाएं होती हैं और सातों को कोई भी सामान्य व्यक्ति एक साथ नहीं जान या समझ सकता है इसलिए उसमें इच्छाएं बनी रहती हैं तथा अर्हत ही पदार्थ की सभी सात अवस्थाओं को एक साथ देख व समझ सकता है अर्थात उसकी इच्छाओं की समाप्ति हो जाती है ।

पातंजल योग दर्शन के अनुसार मूलाधार से निकलने वाली ऊर्जा समस्त पांच ऊर्जा कोषों को बेधकर जब आज्ञा चक्र अर्थात ब्रह्म में समाहित हो जाये तो उस स्थिति को मोक्ष कहा गया है ।


न्याय एवं वैषेशिक दर्शन का मानना है कि यदि सुख है तो दुःख अवश्य होंगे यही शाश्वत सत्य है इसलिए मात्र सुख की इच्छा करना बेकार है । दुःख का नाश एक ही दशा में सम्भव है जबकि सुख प्राप्ति की इच्छा त्याग कर दिया जाए और जब हम सुख प्राप्ति की इच्छा का त्याग कर देते हैं उसी स्थिति को मोक्ष कहा गया है ।

द्वैतवाद और अद्वैतवाद दोनों अगर सतही रूप से देखा जाए तो एक दूसरे के विपरीत प्रतीत होते हैं किंतु सूक्ष्म रूप से उनका उद्देश्य जीव को जी को ईश्वर का अंश है उसमें विलीन करना है । इसी स्थिति को इन दोनों दर्शनों मे मोक्ष कहा गया है । ईश्वर का अर्थ होता है "इष्टम् सः वर:" अर्थात जो समस्त इच्छाओं में सर्वश्रेष्ठ इच्छा है । यदि आपको अपनी सर्वश्रेष्ठ इच्छा प्राप्त हो जाती है तो आपकी कोई अन्य इच्छा नहीं बचती है और यहां भी इच्छाओं कक समाप्ति ही मुक्ति है ।

अतैव साररूप में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति की इच्छाओं को जो की असीमित कही जाती हैं उन्हीं का अंत अर्थात दुःखों का , कामना का और आसक्ति का अंत ही मोक्ष है ।

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