Wednesday, August 30, 2017

दिव्य

#शब्द_मीमांसा #5

शब्द -दिव्य

शब्द संप्रेषक -सारिका सौरभ जी

दिनाँक - 14/08/2017

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुनः ।।

श्रीमद्भागवतगीता अध्याय 4 श्लोक 9 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेते हैं वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता , किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है ।

उक्त श्लोक में भगवान कृष्ण स्वयं के जन्म और कर्म को दिव्य बताते हैं और दिव्य होने के कारण वे सामान्य मनुष्य के ज्ञान से परे हैं और जो इस दिव्यता को जान लेता है वह स्वयं को त्यागकर इसी दिव्यता का हिस्सा हो जाता है और वह स्वयं भी दिव्य हो जाता है ।

अब प्रश्न उठता है आखिर दिव्य क्या है जिसे भगवान ने इतना महत्वपूर्ण बताया है। वास्तव में "दिव्य" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के "दिव्" शब्द से हुई है जिसका अर्थ है "प्रकाश" अर्थात ऐसा अलौकिक प्रकाश जो कि समस्त दिशाओं को प्रकाशमान कर दे।  दिव् से ही दिवस तथा देवता शब्दों की उत्पत्ति भी हुई है ।

भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है कोई भी व्यक्ति दिव्य पद प्राप्त कर सकता है अर्थात देवता बन सकता है केवल उसे वे कर्म करने होंगे जो देवता के लिए आवश्यक हैं । शास्त्रों में वर्णित है कि यदि व्यक्ति सौ यज्ञ पूरा कर लेता है तो वह इंद्र बन जाता है । इसका उदाहरण महाराज नहुष रहे हैं जब इंद्र ने वृत्तासुर क् वध किया था तो उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगा था और उनका पतन हो गया था । किंतु नहुष को भी मद हो गया और इसी कारण वे सप्तऋषियों का अपमान करके दण्डित हुए और इंद्र पड़ से च्युत होना पड़ा । रामायण के अरण्यकांड में महर्षि बाल्मीकि ये उल्लेख किया है कि दिव्य पद पर आसीन लोगों के पुण्य गलतियां करने पर तेज़ी से क्षीण होते हैं और वे पदच्युत कर दिए जाते हैं ।

यहां यज्ञ शब्द का अर्थ हवन कुंड बनाकर उसमें हवि देना मात्र नहीं है । शास्त्रों में यज्ञ का अभिप्राय कर्तव्यों के निर्वहन से है न कि मात्र भौतिक अग्नि में आहुति हवि देने से । कुछ यज्ञ यथा "पंच दैनिक यज्ञ, सात पाकयज्ञ, सात हर्वियज्ञ, सात सोम यज्ञ आदि " इसी प्रकार से यज्ञों की सूची दी गयी है इनमें से जो अपने सौ यज्ञों को पूर्ण कर लेता है वह दिव्यता को प्राप्त कर देवता बन जाता है ।

इसी प्रकार दूसरा तथ्य होता है दिव्यता में समाहित हो जाने का जिसकी बात भगवान कृष्ण ने गीता में की है अर्थात जो उनके जन्म तथा कर्म की दिव्यता को जान लेता है वह उसी में समाहित हो जाता है अर्थात जो व्यक्ति उनके द्वारा स्थापित प्रतिमानों का पालन करता है तथा उनके कहे हुए शब्दों को धारण करता है वह स्वयं के अस्तित्व को त्यागकर उन्हीं की दिव्यता में शामिल होकर ईशत्व को प्राप्त होता है ।

इसी प्रकार जैन दर्शन में भी सामान्य व्यक्ति के द्वारा कैवल्य प्राप्त किये जाने के मार्ग का उल्लेख है और  कैवल्य वही दिव्यता है जबकि बौद्ध दर्शन इसी को बुद्धत्व से संज्ञापित करता है ।

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