Wednesday, August 30, 2017

सन्यास

#शब्द_मीमांसा #8

शब्द- सन्यास

शब्द संप्रेषक - प्रीति सिंह

दिनाँक - 17/08/2017

भारतीय संस्कृति में जीवन, समाज तथा राष्ट्र को एक आदर्श रूप से व्यवस्थित किया गया है और प्रत्येक पड़ाव को जो जिस योग्य है वैसे नियम प्रदान किये गए हैं भारतीय संस्कृति जीवन को चार भागों में बांटती है जिसे आश्रम कहते हैं । वे आश्रम है ; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास ।

सन्यास की अवधारणा मात्र भारतीय संस्कृति में ही प्राप्त होती है अन्य किसी संस्कृति में यदि आप खोजेंगे तो इससे मिलती जुलती अवधारणा नहीं प्राप्त होगी ।

सन्यास शब्द के अर्थ की बात करें तो इसका शाब्दिक अर्थ होता है "सः न्यस्ति" अर्थात "जो अपना सर्वस्व समाज को न्यस्त कर दे" वही सन्यासी है । यानी कि जीवन अब उसका नहीं बल्कि समाज का हो जाता है ।

सन्यास के कुछ अन्य अर्थ भी प्रचलित है यथा त्याग कर देना , छोड़ देना, विरक्त हो जाना आदि ।

हम अक्सर सोचते हैं सन्यास का अर्थ है सभी कर्मों का त्याग कर देना सभी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना और वल्कल वस्त्र धारण करके मात्र ईश्वर की उपासना में अपने जीवन को लगा देना अथवा कुछ और भी सन्यास शब्द का अर्थ ? आखिर सन्यास में क्या त्यागना जरूरी है ? क्या नहीं त्यागना चाहिए ? यह अत्यंत जटिल प्रश्न है । क्योंकि सन्यास और त्याग दोनों एक दूसरे के पर्याय जैसे हैं ।

 शिव जी कहते हैं कि अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भी यही प्रश्न पूछा था कि "हे केशव! सन्यास और त्याग क्या है मैं अलग अलग जानना चाहता हूँ ।" इसका वर्णन गीता के अठारहवे अध्याय में किया गया है और यह अध्याय इसी विषय पर विवेचना करता है ।

इसका उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि : हे पार्थ! कुछ विद्वजन काम्य कर्मों के त्याग को सन्यास समझते हैं और कुछ विचारशील पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को सन्यास समझते हैं । हे अर्जुन ! किन्तु मेरा विचार है कि तीनों प्रकार के कर्मों ( सत, रज तथा तम) में से सत्कर्मो को करना तथा उनके फल का त्याग ही सन्यास है । अर्थात यज्ञ, दान तथा तप रूप कर्मों को एवं जो शास्त्रोक्त कर्म करना व्यक्ति का कर्तव्य है उसे आसक्ति तथा फल की इच्छा के बिना किया जाना ही त्याग अर्थात सन्यास है ।

यदि गीता के 18वें अध्याय के सभी 78 श्लोकों का अनुशीलन करके उन्हें सार रूप मे कहा जाए तो सन्यास हेतु जिन चीजो का त्याग आवश्यक है उन्हें सात श्रेणियों में बांट सकते हैं ।

1- निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग - चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा, अक्षम्य भोजन और प्रमाद आदि का त्याग ।

2- काम्य कर्मों का त्याग - स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति हेतु तथा रोग , संकट आदि की निवृत्ति हेतु निषिद्ध कर्मों का त्याग ।

3- तृष्णा का त्याग- अनैतिक तथा निषिद्ध इच्छाओं का त्याग ।

4- स्वार्थ हेतु दूसरों से सेवा कराने का त्याग - अपने सुख अथवा स्वार्थ सिद्धि हेतु किसी अन्य की बिना याचना सेवा लेना अथवा उसका प्रयोग करना या प्रयोग करने की इच्छाओं का त्याग ।

5 - सम्पूर्ण कर्तव्यों, कर्मों में आलस्य और फल की इच्छा का सर्वथा त्याग - इन्हें भी समझने हेतु कई वर्गों में बांटा जा सकता है -

5A - ईश्वर भक्ति में आलस्य का त्याग-
5B - ईश्वर की भक्ति में कामना का त्याग-
5C- देवताओं के पूजन में आलस्य व कामना का त्याग-
5D- माता पितादि गुरुजनों की सेवा में आलस्य और कामना का त्याग -
5E- यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कार्यों में आलस्य और कामना का त्याग - यहां यज्ञ का अर्थ पांच महायज्ञ (देवयज्ञ, ऋषियज्ञ, पितृ यज्ञ, नृयज्ञ तथा भूतयज्ञ ) है ।
5F- शरीर सम्बन्धी कार्यों में आलस्य और कामना का त्याग-

6- संसार के सम्पूर्ण पदार्थों में और कर्मों में ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग -

7- संसार, शरीर और सम्पूर्ण कर्मों में सूक्ष्म वासना और अहंभाव का सर्वथा त्याग-

अर्थात यदि सार रूप से कहा जाए तो सन्यास का अर्थ घर-बार, पशु-परिवार छोड़ना नहीं बल्कि सन्यास में जिन चीजो क् त्याग करना आवश्यक है वे हैं दुष्प्रवृत्तियाँ, कामना, आलस्य आदि तथा अपने समस्त कर्मों को अकर्ता के भाव से फल की इच्छा से मुक्त होकर कर्तव्य करना ही वास्तव में सन्यास है ।

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