#शब्द_मीमांसा 16
शब्द - दुःख
शब्द संप्रेषक - राज चौकसे जी
पाशुपत शैव सम्प्रदाय में मुख्य पांच तत्व हैं -पति (कारण), पशु (कार्य), योगाभ्यास, विधि तथा दुःखान्त अर्थात दुःखों का अंत जिसे मोक्ष भी कहा जाता है ।
बौद्ध मत में भी भगवान बुद्ध कहते हैं संसार दुःख से भरा हुआ है , दुःखों की समाप्ति ही निर्वाण है। इसके लिए उन्होंने अष्टांगिक मार्ग की विरचना की जिसे उन्होंने दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा कहा है ।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार सुख की इच्छा ही दुःखों का कारण है क्योंकि सुख और दुःख एक दूसरे से बंधे हुए हैं ।
दुःख शब्द की उत्पत्ति दुस् से हुई है जिसका अर्थ होता है बुरा, दूषित, दुष्ट, नीच, कठिन , कठोर आदि । अर्थात वे भवनाएं जो आपके चित्त को दूषित करती हैं तथा आपको कष्ट, कठोरता अथवा बुराई का अनुभव कराती हैं वही दुःख हैं ।
आखिर इस दुःख का कारण क्या है ? इसका प्रत्येक दर्शन एक ही स्वर में उत्तर देता है वह है "इच्छाएं" हमारी इच्छाएं ही हमारे दुःखों का कारण हैं जिससे भय भी उत्पन्न होता है । हम लोगों से , वस्तुओं से यहां तक कि ईश्वर से भी अपेक्षा करते हैं कि वे हमारी इच्छा के अनुसार ही कार्य करें । किन्तु यह भूल जाते हैं उनमें भी प्रज्ञा है अथवा किसी अन्य प्रज्ञावान व्यक्ति की प्रज्ञा उनपर प्रभाव डालती है । इसलिए ये आवश्यक नहीं है कि वे हमारी इच्छा के अनुसार कार्य करें ।
दुःख कारण होता है भय का तथा भय से ही पाप तथा अनाचार का जन्म होता है । हम अपने दुःख का निर्माण स्वयं करते हैं सकाम कर्मों द्वारा । एक बड़े दार्शनिक में कहा है "जब तक मैं न चाहूं मुझे कोई दुःखी नहीं कर सकता है ।"
मृग स्वयं में कस्तूरी होने के बावजूद पूरे जंगल में दौड़ता है कस्तूरी पाने के लिए पर प्राप्त नहीं कर पाता है । इसी प्रकार प्रत्येक दुःख का निदान आप में स्वयं में होता है पर आप उसे बाहर ढूंढ रहे होते हैं और वो आपको प्राप्त नहीं होता आप और ज्यादा दुःखी होते हैं । वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि सुख की इच्छा का त्याग कर दिया जाए तो दुःख स्वयं ही दूर हो जाएगा ।
एक बार एक व्यक्ति राजा जनक के दरबार में आया और बोला ; महाराज मैं बहुत दुःखी कोई उपाय बताइये । राजा जनक बोले ये सिंहासन मुझे उठने नहीं दे रहा है यह मुझे पकड़े हुए है कैसे उठूँ और बिना खड़े हुए मैं आपको बता नहीं पाऊंगा तुम्हारे दुःखों का उपचार ।
व्यक्ति बोला - महाराज! सिंहासन आपको जकड़े हुए है या फिर आप सिंहासन को , यदि आप नहीं बताना चाहते तो मत बताइये पर मेरा मज़ाक मत उड़ाइये ।
राजा जनक बोले इसी तरह तुम दुःख को पकड़े हुए हो न कि दुःख तुम्हें । इच्छाओं का त्याग कर दो दुःख स्वयं चला जायेगा ।
गीता में श्रीभगवान ने भी कहा है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।।
शब्द - दुःख
शब्द संप्रेषक - राज चौकसे जी
पाशुपत शैव सम्प्रदाय में मुख्य पांच तत्व हैं -पति (कारण), पशु (कार्य), योगाभ्यास, विधि तथा दुःखान्त अर्थात दुःखों का अंत जिसे मोक्ष भी कहा जाता है ।
बौद्ध मत में भी भगवान बुद्ध कहते हैं संसार दुःख से भरा हुआ है , दुःखों की समाप्ति ही निर्वाण है। इसके लिए उन्होंने अष्टांगिक मार्ग की विरचना की जिसे उन्होंने दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा कहा है ।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार सुख की इच्छा ही दुःखों का कारण है क्योंकि सुख और दुःख एक दूसरे से बंधे हुए हैं ।
दुःख शब्द की उत्पत्ति दुस् से हुई है जिसका अर्थ होता है बुरा, दूषित, दुष्ट, नीच, कठिन , कठोर आदि । अर्थात वे भवनाएं जो आपके चित्त को दूषित करती हैं तथा आपको कष्ट, कठोरता अथवा बुराई का अनुभव कराती हैं वही दुःख हैं ।
आखिर इस दुःख का कारण क्या है ? इसका प्रत्येक दर्शन एक ही स्वर में उत्तर देता है वह है "इच्छाएं" हमारी इच्छाएं ही हमारे दुःखों का कारण हैं जिससे भय भी उत्पन्न होता है । हम लोगों से , वस्तुओं से यहां तक कि ईश्वर से भी अपेक्षा करते हैं कि वे हमारी इच्छा के अनुसार ही कार्य करें । किन्तु यह भूल जाते हैं उनमें भी प्रज्ञा है अथवा किसी अन्य प्रज्ञावान व्यक्ति की प्रज्ञा उनपर प्रभाव डालती है । इसलिए ये आवश्यक नहीं है कि वे हमारी इच्छा के अनुसार कार्य करें ।
दुःख कारण होता है भय का तथा भय से ही पाप तथा अनाचार का जन्म होता है । हम अपने दुःख का निर्माण स्वयं करते हैं सकाम कर्मों द्वारा । एक बड़े दार्शनिक में कहा है "जब तक मैं न चाहूं मुझे कोई दुःखी नहीं कर सकता है ।"
मृग स्वयं में कस्तूरी होने के बावजूद पूरे जंगल में दौड़ता है कस्तूरी पाने के लिए पर प्राप्त नहीं कर पाता है । इसी प्रकार प्रत्येक दुःख का निदान आप में स्वयं में होता है पर आप उसे बाहर ढूंढ रहे होते हैं और वो आपको प्राप्त नहीं होता आप और ज्यादा दुःखी होते हैं । वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि सुख की इच्छा का त्याग कर दिया जाए तो दुःख स्वयं ही दूर हो जाएगा ।
एक बार एक व्यक्ति राजा जनक के दरबार में आया और बोला ; महाराज मैं बहुत दुःखी कोई उपाय बताइये । राजा जनक बोले ये सिंहासन मुझे उठने नहीं दे रहा है यह मुझे पकड़े हुए है कैसे उठूँ और बिना खड़े हुए मैं आपको बता नहीं पाऊंगा तुम्हारे दुःखों का उपचार ।
व्यक्ति बोला - महाराज! सिंहासन आपको जकड़े हुए है या फिर आप सिंहासन को , यदि आप नहीं बताना चाहते तो मत बताइये पर मेरा मज़ाक मत उड़ाइये ।
राजा जनक बोले इसी तरह तुम दुःख को पकड़े हुए हो न कि दुःख तुम्हें । इच्छाओं का त्याग कर दो दुःख स्वयं चला जायेगा ।
गीता में श्रीभगवान ने भी कहा है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।।

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