#शब्द_मीमांसा #14B
शब्द - गुण (रजस)
शब्द संप्रेषक - अभिजीत दत्त जी ।
दिनाँक - 31/08/2017
तीन गुणों में से द्वितीय गुण है रजस गुण या रजो गुण जिसकी व्याख्या करते हुए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहते हैं -
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोSशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।। (अध्याय 18 श्लोक 26)
अर्थात जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है - वह राजस कहा गया है
किन्तु उससे पूर्व ही श्लोक 23 में श्रीभगवान कहते हैं कि जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है वह कार्य राजस कहलाता है ।
श्लोक 31 में रजस बुद्धि के बारे में गोविंद व्याख्यायित करते हुए कहते हैं ; हे अर्जुन! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता वह बुद्धि राजस होती है ।
किन्तु है धनन्जय फल की इच्छा रखने वाला व्यक्ति जिस प्रकार धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ तथा कामों को धारण करता है वह धारण शक्ति राजसी है । - ऐसा उदबोधन श्रीभगवान द्वारा 34वें श्लोक में किया गया है अध्याय 18 के ।
राजस सुख के बारे में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी श्लोक 38 में विवेचना करते हुए कहते हैं " जो सुख, विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विषतुल्य अर्थात बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह तथा परलोक का नाश करने वाला होता है ।
रजस गुण जिन्हें चरक संहिता में रजस सत्व कहा गया है वहां पर इसके छः भेद बताये गए है जो कि क्रमशः हैं -
प्रथम भेद रजस गुण का है आसुर अर्थात जो शूरवीर, प्रचण्ड, दूसरों की निंदा करने वाला, ऐश्वर्यशाली, छल कपट करने वाला, रुद्र के तुल्य कोप से शत्रुओं को रुलाने वाला, भयंकर, दूसरों पर दया न करने वाला, अपनी ही बड़ाई चाहने वाला, आत्माभिमानी हो उसको आसुर जानें ।
द्वितीय भेद को राक्षस कहा गया है जो असहनशील, कारण से कुपित होने वाला, छिद्र अर्थात शत्रु के कमजोर स्थान पर वार करने वाला, क्रूर, भोजन में अधिक रुचि रखने वाला, मांस का बहुत प्यारा, खूब सोने और खूब परिश्रम करने वाला, ईर्ष्याशील हो उसे "राक्षस" चित्त वाला जानें ।
तृतीय भेद को पैशाच कहा गया है । जो बहुत खाने वाला, स्त्री के समान स्वभाव वाला, स्त्रियों के साथ एकांत में रहने की इच्छा रखने वाला, अपवित्र, शुद्धता व स्वच्छता से द्वेष रखने वाला, भीरू, दूसरों को डराने वाला, विकृत आहार और विकृत विहार वाला हो उसको पैशाच स्वभाव वाला जानें ।
रजस गुणों का चौथा भेद "सार्प" नाम से जाना जाता है अर्थात जो क्रोधित होने पर शूर और अक्रोध की स्थिति में भीरू, तीखे स्वभाव वाला, परिश्रम करने वाला, भययुक्त स्थानों में भी दिखने वाला और आहार विहार करने वाला हो उस व्यक्ति को सार्प जानें ।
पंचम भेद रजस गुणों का प्रैत नाम से अभिप्रेत है अर्थात जो सदा भोजन की इच्छा रखने वाला ,बहुत दुःखशील और आचार तथा उपचार से युक्त, निंदा करने वाला, दूसरों को अपने धन में भाग न देने वाला, बहुत लोभी, कर्म न करने वाला पुरूष हो उसको "प्रैत" या प्रेत स्वभाव वाला जाने ।
छठा और अंतिम भेद रजस गुणों का है "शाकुन" अर्थात जो कामों में निरंतर फंसा हुआ , निरन्तर आहार-विहार में लिप्त, चंचल, असहनशील, संचय न करने वाला पुरुष हो उसको शाकुन जानें ।
शब्द - गुण (रजस)
शब्द संप्रेषक - अभिजीत दत्त जी ।
दिनाँक - 31/08/2017
तीन गुणों में से द्वितीय गुण है रजस गुण या रजो गुण जिसकी व्याख्या करते हुए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहते हैं -
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोSशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।। (अध्याय 18 श्लोक 26)
अर्थात जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है - वह राजस कहा गया है
किन्तु उससे पूर्व ही श्लोक 23 में श्रीभगवान कहते हैं कि जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है वह कार्य राजस कहलाता है ।
श्लोक 31 में रजस बुद्धि के बारे में गोविंद व्याख्यायित करते हुए कहते हैं ; हे अर्जुन! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता वह बुद्धि राजस होती है ।
किन्तु है धनन्जय फल की इच्छा रखने वाला व्यक्ति जिस प्रकार धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ तथा कामों को धारण करता है वह धारण शक्ति राजसी है । - ऐसा उदबोधन श्रीभगवान द्वारा 34वें श्लोक में किया गया है अध्याय 18 के ।
राजस सुख के बारे में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी श्लोक 38 में विवेचना करते हुए कहते हैं " जो सुख, विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विषतुल्य अर्थात बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह तथा परलोक का नाश करने वाला होता है ।
रजस गुण जिन्हें चरक संहिता में रजस सत्व कहा गया है वहां पर इसके छः भेद बताये गए है जो कि क्रमशः हैं -
प्रथम भेद रजस गुण का है आसुर अर्थात जो शूरवीर, प्रचण्ड, दूसरों की निंदा करने वाला, ऐश्वर्यशाली, छल कपट करने वाला, रुद्र के तुल्य कोप से शत्रुओं को रुलाने वाला, भयंकर, दूसरों पर दया न करने वाला, अपनी ही बड़ाई चाहने वाला, आत्माभिमानी हो उसको आसुर जानें ।
द्वितीय भेद को राक्षस कहा गया है जो असहनशील, कारण से कुपित होने वाला, छिद्र अर्थात शत्रु के कमजोर स्थान पर वार करने वाला, क्रूर, भोजन में अधिक रुचि रखने वाला, मांस का बहुत प्यारा, खूब सोने और खूब परिश्रम करने वाला, ईर्ष्याशील हो उसे "राक्षस" चित्त वाला जानें ।
तृतीय भेद को पैशाच कहा गया है । जो बहुत खाने वाला, स्त्री के समान स्वभाव वाला, स्त्रियों के साथ एकांत में रहने की इच्छा रखने वाला, अपवित्र, शुद्धता व स्वच्छता से द्वेष रखने वाला, भीरू, दूसरों को डराने वाला, विकृत आहार और विकृत विहार वाला हो उसको पैशाच स्वभाव वाला जानें ।
रजस गुणों का चौथा भेद "सार्प" नाम से जाना जाता है अर्थात जो क्रोधित होने पर शूर और अक्रोध की स्थिति में भीरू, तीखे स्वभाव वाला, परिश्रम करने वाला, भययुक्त स्थानों में भी दिखने वाला और आहार विहार करने वाला हो उस व्यक्ति को सार्प जानें ।
पंचम भेद रजस गुणों का प्रैत नाम से अभिप्रेत है अर्थात जो सदा भोजन की इच्छा रखने वाला ,बहुत दुःखशील और आचार तथा उपचार से युक्त, निंदा करने वाला, दूसरों को अपने धन में भाग न देने वाला, बहुत लोभी, कर्म न करने वाला पुरूष हो उसको "प्रैत" या प्रेत स्वभाव वाला जाने ।
छठा और अंतिम भेद रजस गुणों का है "शाकुन" अर्थात जो कामों में निरंतर फंसा हुआ , निरन्तर आहार-विहार में लिप्त, चंचल, असहनशील, संचय न करने वाला पुरुष हो उसको शाकुन जानें ।