शब्द मीमांसा २४
शब्द – पुरुष
दिनांक – २८/०२/२०१८
पुरुष शब्द अत्यंत व्यापक
शब्द है | भाषा में इसे लिंग विशेष के लिए प्रयोग किया जाता है जिसका तात्त्पर्य
स्त्री केविपरीत लिंग से होता है | हिंदी भाषा में पुरुष शब्द का अगर शाब्दिक अर्थ
देखा जाये तो होता है “जो पुर अर्थात समाज की सेवा करता है वही पुरुष है” | एक
अन्य अर्थ के अनुसार जो पुरुषार्थ को प्राप्त करने की क्षमता रखता है वह पुरुष है
| ये सभी इस बात को इंगित करते हैं की मात्र XY गुणसूत्र के साथ पैदा हो जाने से
ही व्यक्ति पुरुष नहीं होता है बल्कि जो समाज को सेवित करता है तथा धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष को प्राप्त करने की क्षमता रखता है वही पुरुष है |
प्राचीन भारतीय दर्शन में
पुरुष शब्द का अन्य अर्थ ही लिया जात है ऋग्वेद में कहा गया है “पुरि शेते इति”
अर्थात जो पुर यानी शरीर में शयन करता है वही पुरुष है | ऋग्वेद के दशम मंडल के
पुरुषसूक्त में भारतीय समाजवाद का एक अप्रतिम चित्रण किया गया है वहां पर चारों
वर्णों को एक ही शरीर का हिस्सा बताया गया है वह शरीर परम पुरुष का अर्थात समाज का
है | यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है की वहां पर किसी वर्ण की उत्पत्ति नहीं बताई
गयी है बल्कि उसके कार्य बताये गये हैं | वहां कहा गया है की “ब्रह्मणो मुखासीत”
जिसका अर्थ होता है “ब्राह्मण मुख है न की मुख से उत्पन्न है” “बाहु राजन्या कृतः”
अर्थात क्षत्रिय का कार्य वही है जो शरीर में बाहों का है समस्त की रक्षा करना इसी
प्रकार से वैश्य द्वारा अमाज का पोषण तथा शूद्र द्वारा सबसे महत्वपूर्ण कार्य
सम्पादित होता है शरीर को चलायमान करना नही तो समाज ठहर जायेगा और विकृतियाँ
उत्पन्न हो जाएँगी | पर यह स्थिति खेदजनक है की इस सूक्त का गल्र अर्थ निकालकर
मात्र समाज को तोड़ने का कार्य हो रहा है दुनिया के किसी भी शरीर क्रिया विज्ञान की
पुस्तक में मुख को पैर से श्रेष्ठ नहीं बताया गया है फिर वर्ण व्यवस्था में कोई
श्रेष्ठ कैसे हो सकता है ? आगे इसी सूक्त में इस परम पुरुष के पैरों को पृथ्वी कहा
गया है अर्थात शूद्र को पृथ्वी की तरह समस्त वर्णों को धारण करने वाला तथा उनकी
उत्पत्ति एवं पोषण का हेतु माना गया है |
सांख्य दर्शन के अनुसार
समस्त सृष्टि का निर्माण दो तत्वों प्रकृति तथा पुरुष से हुई है जिसमें प्रकृति जड़
तत्व तथा पुरुष चेतन तत्व जिसमें से प्रकृति के द्वारा प्राणियों के स्थूल शरीर का
तथा पुरुष के द्वारा मनुष्य के सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है दोनों मिलकर कारण
शरीर बनाते इसी से समस्त कार्य सम्पन्न होते हैं | व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य है
प्रकृति तथा पुरुष को अलग अलग करके पुरुष तत्व को परमपुरुष में समाहित कर देना |
गीता के अनुसार पुरुष तीन
प्रकार के होते हैं – क्षर, अक्षर तथा पुरुषोत्तम |
जिसमें क्षर पुरुष के अंतर्गत
समस्त नश्वर संसार की समाविष्टि है, अक्षर के अधीन जो अनश्वर है अर्थात जीवात्मा
का समावेश है जबकि पुरुषोत्तम के अंतर्गत वह तत्व आता है जो क्षर और अक्षर दोनों
से परे है जिससे दोनों की उत्पत्ति हुई है अर्थात जो परमात्म तत्व है |
संस्कृत व्याकरण में तीन
प्रकार के पुरुष का प्रयोग होता है प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष |
जहाँ और प्रथम पुरुष उसके लिए जो सम्वाद में उपस्थित नहीं है, मध्यम पुरुष उसके
लिए जिससे सम्वाद किया जा रहा है तथा उत्तम पुरुष उसके लिए जो सम्वाद बोल रहा है |
पुरुष के गुण को पौरुष कहा
गया है किंतु पौरुष का तात्पर्य कहीं भी बल प्रदर्शन मात्र नहीं है आताताई बन जाना
पौरुष नहीं है, किसी अन्य पर चाहे वे बाल, वृद्ध हों अथवा नारी हों उनपर अनावश्यक
बल का प्रदर्शन पौरुष नहीं है | हमारे लोकनायक रहे और ईश्वर के रूप में पूजनीय
भगवान राम ने इन विषयों पर सुंदर प्रतिमान स्थापित किये हैं | उन्होंने सदैव
पीड़ितों की सेवा और दुष्टों को दंड दिया जाना ही पौरुष बताया है | मैं जहाँ पैदा
हुआ हूँ कहा जाता है मैं क्षत्रिय हूँ, मुझे बार बार उलाहना भी मिलती है की
मांसाहार नही करते कैसे क्षत्रिय हो, टैक्सी वाले को पूरा किराया दे दिया कैसे
क्षत्रिय हो ? शांति की बात करते हो कैसे क्षत्रिय हो ? जैसी अनेक बातें होती है
पर वास्तविकता तो यह है किसी भी पुरुष का क्षत्रिय का ये कार्य नहीं की वो बेवजह
किसी को कष्ट दे , लोगों के अधिकारों का अपहरण करे | उसका काम रक्षा तथा सेवा करना
समाज की राष्ट्र की और मानवता की |

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