Tuesday, March 6, 2018

अग्नि


शब्द मीमांसा २० 

शब्द – अग्नि

दिनांक – १७/०२/२०१८

अग्नि शब्द को कई अर्थो में उपयोग किया जाता जाता है सबको जलाने वाला , क्षुधा, इर्ष्या आदि अग्नि को हमारे वैदिक वांग्मय में देवता माना गया है | किन्तु अग्नि शब्द का शाब्दिक अर्थ है “ऊपर की और जाता है” (अगि गतौ) इसका अन्य प्रकार से अर्थ लेने पर अर्थ होता है अगेर्नलोपस्य अर्थात जो नकारात्मकता का लोप कर दे | वैदिक देवताओ का जो सबसे प्राचीन समूह है उसका भाग रहे हैं अग्निदेव | ऋग्वेद में अग्नि के तीन स्थान तथा रूप बताये गये हैं , आकाश में सूर्य , अन्तरिक्ष में विद्युत्, पृथ्वी पर अग्नि | पुनः धरा पर अवस्थित अग्नि को तीन रूपों में बताया गया है; दैविक, दैहिक, भौतिक | इस भौतिक अग्नि को के तीन प्रकार बताये गये हैं; दावाग्नि, जठराग्नि तथा बडवाग्नि | ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि के लिए ही कहे गये हैं इन्हें मनुष्य तथा देवताओ में मध्य की कड़ी तथा देवताओ का मुख कहा गया है |
अग्नि को ऋग्वेद में गृहपति तथा  अंधकार, निशाचर, जादू टोना, राक्षस और रोगों को भगाने वाला कहा गया है | अग्नि समिधा, घृत तथा सोम से बलवती होती है ऐसा वर्णित किया गया है | अग्नि का वास स्थान अग्नि की वेदिका बताया गया है | अग्नि को देवताओ का पुरोहित तथा यज्ञो का राजा ऋग्वेद का तृतीय मंडल वर्णित करता है |
नैतिक तत्वों से भी अग्नि का सम्बन्ध है उसकी १००० ऑंखें हैं जिनसे वह मनुष्य कर्मों को देखता है तथा उसके गुप्तचर हैं जो मनुष्य के गुप्त जीवन को भी जानता है वह ऋत का संरक्षक है ऐसी उद्घोषणा ऋग्वेद का दशम मंडल करता है | चतुर्थ मंडल कहता है अग्नि पापियों को देखता है तथा पापियों को दंड देता है वह पापों को क्षमा भी करता है |
जैमिनी ने पूर्व मीमांसा के “हवि प्रक्षेपण अधिकरण” में अग्नि के छह प्रकार बताये हैं गृह्पत्य, आवह्नीय, दक्षिणाग्नि, सम्य, आव्सर्थ्य तथा औपासन |
अग्नि की उत्पत्ति के विषय में एक पौराणिक कथा है धर्म की पत्नी वसु के पुत्र के रूप में अग्नि का जन्म हुआ और अग्नि की पत्नी स्वाहा जिसे अग्नायी भी कहा गया है से तीन पुत्र उत्पन्न हुए पावक,  पवमान तथा शुचि | छठें मन्वन्तर में अग्नि की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविनक आदि ४५ पुत्रो का जन्म हुआ |
अग्नि को विभिन्न समयों पर भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है लौकिक कर्म में पावक, गर्भाधान में मारुत, पुंसवन में चन्द्रमा, शुन्ग्कर्म में शोभन, सीमान्त में मंगल, जातकर्म में प्रगल्भ, नामकरण में पार्थिव, अन्नप्राशन में शुचि, चूडाकर्म में सत्य, उपनयन में समुद्भव, गोदान में सूर्य, केशांत में अग्नि, विसर्ग में वैश्वानर, विवाह में योजक, चतुर्थी में शिखी,धृति में अग्नि, प्रायश्चित में विधु , पाकयज्ञ में साहस, लक्षहोम में वह्नि, कोटिहोम में हुताशन, पूर्णाहुति में मृड, शांति में वरद, पौष्टिक में वलद, आभिचारिक में क्रोधाग्नि वशीकरण में शमन, वरदान में अभिदूषक, कोष्ठ में जठर और मृत भक्षण में क्राव्याद कहा गया है |
अग्नि के स्वरूप का वर्णन करते हुए अदित्यापुरण में कहा गया है कि जिनकी भौहें, दाढ़ी और आंखे पीली,अंग स्थूल हैं तथा उदर लाल हैं | बकरे पर आरूढ़ हैं अक्षमाला लिए हुए हैं | इनकी सात ज्वालायें है और शक्ति को धारण करता है |
वायुपुराण का वर्णन है कि यज्ञ की अग्नि ज्वालायुक्त, पिण्डितशिखा, घी और सुवर्ण के समान चिकना तथा दाहिनी ओर गतिशील होनी चाहिए |

देहजन्य अग्नि के बारे में नंगीतदर्पण में कहा गया है, आत्मा द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि आहत करता है, ब्रह्मग्रंथी में स्थित प्राणवायु को वह अग्नि प्रेरित करती है | अग्नि के द्वारा प्रेरित प्राण क्रमशः ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यंत सूक्ष्म ध्वनि उत्पन्न करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि उत्पन्न करता है | सिर में पुष्ट तथा अपुष्ट और मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है | विद्वानों ने पञ्च प्रकार की अग्नि का वर्णन किया है | नकार प्राण का नाम है तथा दकार अग्नि का नाम है | प्राण तथा अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है |

भेषज संहिताओ के अनुसार अग्नि का मूल गुण है रूप अथवा दृश्य भी जिसे हम कहते हैं | किन्तु उत्तरोत्तर इसमें वृद्धि होती जाती है और ये आगे चलकर तीन गुण ग्रहण कर लेता है शब्द, स्पर्श तथा रूप | उष्णत्व अग्नि का लक्षण माना गया है तथा मानव शरीर की नेत्र इन्द्रिय को इरका प्रतिनिधि इंद्री माना गया है |

अग्नि की सर्वत्र उपस्थिति – अग्नि किसी न किसी रूप सदैव तथा सर्वत्र उपस्थित रहती है यह जल में विद्युत् के रूप में तो काष्ठ या अन्य इंधनों में ऊष्मा के रूप में, सूर्य में उसके स्रोत जिसे वर्तमान विज्ञानं में हाइड्रोजन कहते है, मनुष्य के नेत्र में भी प्रकाश के रूप में उपस्थित है उसकी हजारों रूपों में किसी न किसी न किसी प्रकार से उपस्थित रहती है इसीलिए इसे मनुष्य के कर्मों का साक्षी कहा गया है तथा इसे सब कुछ देखने वाला तथा जिनमें इनकी उपस्थिति है उन्हें इसका गुप्तचर कहा गया है |

अग्नि का वाहन बकरे को कहा गया है क्युकी बकरा जिस तृण का भक्षण करता है उसका समूल नाश हो जाता है जैसे की अग्नि जिसका भक्षण करता है उसका समूल नाश हो जाता है | अग्नि हर प्रकार के आहार ग्रहण करता है तथा उन सबको उनके योग्य बना देता है जिन हेतु वे उसमें डाले गये हैं अग्नि का ये गुण हमें बताता है की हमें अपने कार्य के प्रति उतना ही इमानदार होना चाहिए की जितना की अग्नि है की सब कुछ उसके मुख से होकर गुजरता है फिर भी वो हर हवि को प्रत्येक देव तक पंहुचाता है | अग्नि की तरह हम तीक्ष्ण हों फिर भी हमें लोक कल्याणकारी होना चाहिए हमारी तीक्ष्णता और तेज यदि अग्नि की तरह लोक कल्याणकारी होगा तो हम पूज्य होंगे |


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