शब्द मीमांसा २२
शब्द – अतिथि
दिनांक – २१/०२/२०१८
हमारे देश की संस्कृति में
अतिथि को सदैव पूज्यनीय माना गया है | अथर्ववेद में वर्णन है की अतिथि के भोजन कर
सकने के उपरांत भी भोजन ग्रहण करना चाहिए | तैत्तिरीय उपनिषद में अतिथि के देव
होने की घोषणा की गयी है | भारतीय संस्कृति में ५ प्रकार के यज्ञो का वर्णन किया
गया है जिसमें की अतिथि यज्ञ भी उनमें से एक है | ये बात ध्यातव्य है की यज्ञ का
अर्थ मात्र अग्नि के सम्मुख बैठकर मन्त्र पढ़कर हवि देना मात्र ही नहीं है अपितु
यज्ञ का अर्थ होता है धर्म अर्थात कर्तव्यों के पालन हेतु संसार रुपी अग्नि में
स्वयं के सामर्थ्य के अनुसार हवि अर्थात योगदान करना | इस प्रकार किसी अतिथि के
प्रति जो हमारे कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं उन्हें पूर्ण करना ही अतिथि यज्ञ
है |
अतिथि कौन है ? – अतिथि शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के मेल से हुई है अत+इथिन
अर्थात ऐसा जो कभी ठहरता नहीं सदैव चलता रहता है वही अतिथि है | घर आया हुआ, पहले
अज्ञात व्यक्ति ही अतिथि कहलाता है | इसे आगन्तुक, आवेशिक तथा गृहागत आदि नामों से
भी जाना जाता है | इसमें लक्षण कुछ इस प्रकार हैं –
यस्य न ज्ञायते नाम न च
गोत्र न च स्थिति |
अकस्माद गृहमायादि सो अतिथि
प्रोच्यते वुधै ||
अर्थात जिसका नाम, गोत्र,
स्थिति नहीं ज्ञात है और जो अकस्माद घर में आता है उसे अतिथि कहते हैं |
मार्कण्डेयपुराण का कथन है –
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो
मूर्ख पतित एव वा | सम्प्राप्ते वैश्व्देवान्ते सो अतिथि स्वर्गसक्रम ||
अर्थात चाहे प्रिय हो या
विरोधी, मूर्ख, पतित कोई भी हो वैश्वदेव के अंत (सायं काल) में जो भी आता है वो
इंद्र की तरह स्वर्ग ले जाता है |
विष्णुपुराण का कथन है –
स्वाध्यायगोत्रचरणंपृष्ट्वापि
तथा कुलं | हिरण्यगर्भबुद्धया त मन्येताभ्यागत गृही ||
देश नाम कुल विद्या
पृष्ट्वा यो अन्न प्रयच्छति | न स तत्फलमाप्नोति दत्वा स्वर्ग न गच्छति ||
अर्थात स्वाध्याय, गोत्र,
चरण, कुल बिना पूछे ही गृहस्थ अतिथि को विष्णु का रूप मानें उससे देश आदि पूछने पे दोष लगता है |
देश, नाम, विद्या, कुल आदि पूछकर जो अन्न देता है उसे पुण्यफल नहीं मिलता है और
फिर वह स्वर्ग नहीं जाता है |
अतिथि को अपनी सामर्थ्य के
अनुसार देना चाहिए | मार्कण्डेयपुराण के अनुसार भिक्षा आदि के प्रकार के हैं जो इस
प्रकार हैं –
भोजन हन्तकारं वा अग्र
भिक्षामथापि वा | अदत्वा नैव भोक्तव्य यथा विभवमात्मन ||
अर्थात भोजन, हन्तकार,
अग्रग्रास अथवा भिक्षा बिना दिए भोजन नहीं करना चाहिए | यथा शक्ति पहले देकर तब
भोजन करना चाहिए | ग्रास भर को भिक्षा,
ग्रास के चौगुने को अग्र, अग्र के चौगुने को हन्तकार कहते हैं |
विष्णुपुराण का कथन है की
जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है उस गृहस्थ को पाप देकर तथा पुण्य लेकर
चला जाता है | गौदोहन (मुहूर्त का अष्टम भाग) जितना समय तक ही अतिथि को घर के आंगन
में प्रतीक्षा करनी चाहिए |
वास्तव में भारतीय
विधिशास्त्र में विधि को दो भागों में बांटा गया है जो आज्ञापक विधियाँ हैं उन्हें
विधि कहा गया तथा जो विधियाँ घोषणात्मक विधियों को धर्म कहा गया है | अर्थात धर्म का पालन
न करना दंडनीय तो नही है किन्तु पालन करना श्रेयस्कर तथा एक अच्छे समाज के निर्माण
के लिए आवश्यक प्रतीत होता होता है | इसी प्रकार हमारी संस्कृति में अथिति के
प्रति मन में सदैव सम्मान का भाव बना रहे तथा हम उसकी बिना किसी भेदभाव के सेवा
करें इसीलिए उसका नाम, गुण, कुल आदि पूछना वर्जित किया गया है | आतिथ्य का जो
कांसेप्ट है यह सहकारिता और न्यासधारिता के सिद्धांत पर आधारित है आज हमारे घर कोई
अतिथि है कल हम किसी अन्य के घर होंगे हमारे साथ कोई बुरा बर्ताव न करे इसलिए हमें
भी किसी अन्य के साथ बुरा बर्ताव नहीं करना चाहिए |
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