Tuesday, March 6, 2018


शब्द मीमांसा २५

शब्द – ॐ

दिनांक – ०२/०३/२०१८

आज फिर समय मिल गया शिव से मुखातिब होने का | उसे समय क्या कहें यूँ समझिये जरूरत थी मुझ जैसे स्वार्थी लोग जो बिना जरूरत के श्वास भी नहीं लेते हैं | गया तो शिव बोले कहो बालक कैसे आना हुआ ? मैंने कहा बस आपके दर्शनों की अभिलाषा और कुछ प्रश्न खिंच लाते है भगवान आपके पास |

शिव बोले – दर्शन तो हो गया अब तो जल्दी से सवाल भी बोल दो जल्दी से | मैंने कहा – हे महादेव ! यह ॐ क्या है ? आखिर इसका अर्थ और संरचना की है ?

भगवान शिव हंसते हुए बोले – बड़ा खतरनाक सवाल पूछा तूने एक बार इसी सवाल के कारण ब्रह्मा जी बंदी बना लिए गये थे |

मुझे आश्चर्य हुआ आखिर ब्रह्मा जी क्यों बंदी बना लिए गये थे इस सवाल के लिए ? मैंने पूछा – क्या हुआ था भगवान पूरा पूरा बताइए |

शिव बोले – एक बार कार्तिकेय ने यही प्रश्न ब्रह्मा जी से किया था की हे ब्रह्मदेव आपको तो सभी चीजों का ज्ञान रहता है इसलिए आप मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिये कि ॐ क्या है ? इसपर ब्रह्मा जी जब बताने से असमर्थता जताई तो उन्होंने कहा की अब तो आपको मेरा बंदी बनना पड़ेगा और विडम्बना देखिये कर्ता( ब्रह्मा जी ) कृति (कुमार कार्तिकेय) के बंदी बनकर साथ चल पड़े | ब्रह्मा जी के सृजन का कार्य बाधित होने के कारण समस्त सृष्टि में असंतुलन की स्थिति आ गयी सभी देव मेरे पा आये और सारा हाल बताया तो मैंने कार्तिकेय से पूछा आपने ब्रह्मा जी को बंदी क्यों बनाया ? इसपर कुमार कार्तिकेय ने कहा – पिता जी मैंने कहा बनाया उन्हें बंदी वो तो स्वयं बंदी बने हैं अपने अज्ञान के अन्धकार के | आप स्वयं सोचिये जिन्हें ॐ का ज्ञान नहीं है वो सृष्टि का निर्माण कैसे करता होगा ? मैंने कार्तिकेय से पूछा की तो फिर उन्हें मुक्त करने के लिए क्या करना होगा ? कुमार बोले पिता जी आप ही मुझे ॐ का अर्थ बताइए और इन्हें मुक्त करा लीजिये | मैंने कहा मुझे तो नही पता है तुमको पता हो तो बताओ | इसपर कुमार बोले इसके लिए आपको मुझे अपना गुरु मना पड़ेगा | इस तरह कार्तिकेय ने मेरी गोद में बैठकर अपने पिता तथा शिष्य यानी मुझे ॐ शब्द का उपदेश दिया |

शिव की बातें सुनकर मैंने शिव से कहा वाह बहुत रुचिकर कथा है भगवन आगे क्या बताया कुमार ने ये बताने का कष्ट करें प्रभु | मेरी बात पर भगवान शिव ने कहा – पागल लडके बताने के लिए ही तो ये कथा प्रारम्भ की है मैंने इतना अधीर्ण क्यों होता है तू |

आगे नीलकंठ ने कहना शुरू किया – सुन !  ॐ एक अक्षर, एक शब्द तथा नाद तीनों एक साथ है यह तीन ध्वनियों का मेल है ‘अ’, ‘उ’ तथा ‘म’ | दुनिया का कोई भी भाषा बोलने वाले व्यक्ति का जब मुंह खुलता है तो ‘अकार’ के साथ तथा बंद होता है ‘मकार’ के साथ तथा ‘उकार’ की दशा आधा खुला तथा आधा बंद रहता है अतैव विश्व की समस्त ध्वनियाँ तथा स्वर इसी ॐ में समाहित है ॐ एक विशिष्ट वैश्विक ध्वनि है तथा इश्वर का प्रतीक भी |

मंडूकोपनिषद के अनुसार समस्त जाग्रत अवस्था का प्रपंच ‘अ’ से प्रारम्भ होता है तथा सुसुप्तावस्था के प्रपंच ‘म’ से शुरू होते हैं एवं स्वप्नावस्था के प्रपंच ‘उ’ से प्रारम्भ होते हैं |जिससे तीनों अवस्थाओं के प्रपंच आत्म तथा ब्रह्म से प्रारम्भ होकर पुनः उसी में विलीन हो जाते हैं वैसे ही ॐ शांति से उत्पन्न्होकर उसी में विलीन हो जाता है अतैव ॐ शब्द भी है और निःशब्द भी |

जब हम ओंकार की ध्वनि करते हैं तो दो ओंकार के मध्य जो अन्तराल की निःशब्दता होती है उसे अमात्रा कहा जाता है वह निर्गुण ब्रह्म का प्रतीक है | जैसे ‘अ’, ‘उ’ में तथा ‘उ’, ‘म’ में विलीन हो जाता है तथा ‘म’ अंत में निःशब्दता में विलीन हो जाता है ठीक उसी तरह उपासना में जब हम ॐ का उच्चारण करते हैं तो उस नाद द्वारा स्थूल, सूक्ष्म में विलीन होने लगता है और सूक्ष्म कारण में विलीन होने लगता है तदन्तर कारण इन सभी भौतिक बाधाओं को का अतिक्रमण करके आत्मा तथा आत्मा, ब्रह्म में विलीन होने लगती है | इस तरह ॐ प्रणव है जिससे इश्वर का प्रणयन किया जाता है |

कुछ समझ भी आया या बैठे बैठे सुन ही रहा है ? – शिव के ये वचन सुन मेरी तंद्रा भंग हुई | मैंने कहा हे शिव इतना विशद ? एक प्रश्न और था की ये मन्त्रों के प्रारम्भ और अंत में ॐ का उच्चारण क्यों किया जाता है ?

शिव बोले – तेरे प्रश्न समाप्त नहीं होने वाले न ? तो सुन जब ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ किया था तो दो शब्दों के साथ किया था “ॐ” तथा “अथ” अतः प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ ॐ शब्द के साथ किया जाना शुभ होता है |

मंडूकोपनिषद का कथन है – “ओंकार धनुष है तथा जीवात्मा बाण है एवं लक्ष्य ब्रह्म है | बाण को धनुष द्वारा इतने लक्ष्य के साथ छोड़ा जाना चाहिए की वह लक्ष्य के साथ बिद्ध होकर उसी के एकाकार हो जाये |

मैंने शिव को धन्यवाद ज्ञापित किया तथा उनका अभिवादन कर पुनः अगले विशेष प्रश्न तक के लिए विदाई लेकर लौट आया |

पुरुष


शब्द मीमांसा २४

शब्द – पुरुष

दिनांक – २८/०२/२०१८

पुरुष शब्द अत्यंत व्यापक शब्द है | भाषा में इसे लिंग विशेष के लिए प्रयोग किया जाता है जिसका तात्त्पर्य स्त्री केविपरीत लिंग से होता है | हिंदी भाषा में पुरुष शब्द का अगर शाब्दिक अर्थ देखा जाये तो होता है “जो पुर अर्थात समाज की सेवा करता है वही पुरुष है” | एक अन्य अर्थ के अनुसार जो पुरुषार्थ को प्राप्त करने की क्षमता रखता है वह पुरुष है | ये सभी इस बात को इंगित करते हैं की मात्र XY गुणसूत्र के साथ पैदा हो जाने से ही व्यक्ति पुरुष नहीं होता है बल्कि जो समाज को सेवित करता है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करने की क्षमता रखता है वही पुरुष है |

प्राचीन भारतीय दर्शन में पुरुष शब्द का अन्य अर्थ ही लिया जात है ऋग्वेद में कहा गया है “पुरि शेते इति” अर्थात जो पुर यानी शरीर में शयन करता है वही पुरुष है | ऋग्वेद के दशम मंडल के पुरुषसूक्त में भारतीय समाजवाद का एक अप्रतिम चित्रण किया गया है वहां पर चारों वर्णों को एक ही शरीर का हिस्सा बताया गया है वह शरीर परम पुरुष का अर्थात समाज का है | यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है की वहां पर किसी वर्ण की उत्पत्ति नहीं बताई गयी है बल्कि उसके कार्य बताये गये हैं | वहां कहा गया है की “ब्रह्मणो मुखासीत” जिसका अर्थ होता है “ब्राह्मण मुख है न की मुख से उत्पन्न है” “बाहु राजन्या कृतः” अर्थात क्षत्रिय का कार्य वही है जो शरीर में बाहों का है समस्त की रक्षा करना इसी प्रकार से वैश्य द्वारा अमाज का पोषण तथा शूद्र द्वारा सबसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित होता है शरीर को चलायमान करना नही तो समाज ठहर जायेगा और विकृतियाँ उत्पन्न हो जाएँगी | पर यह स्थिति खेदजनक है की इस सूक्त का गल्र अर्थ निकालकर मात्र समाज को तोड़ने का कार्य हो रहा है दुनिया के किसी भी शरीर क्रिया विज्ञान की पुस्तक में मुख को पैर से श्रेष्ठ नहीं बताया गया है फिर वर्ण व्यवस्था में कोई श्रेष्ठ कैसे हो सकता है ? आगे इसी सूक्त में इस परम पुरुष के पैरों को पृथ्वी कहा गया है अर्थात शूद्र को पृथ्वी की तरह समस्त वर्णों को धारण करने वाला तथा उनकी उत्पत्ति एवं पोषण का हेतु माना गया है |

सांख्य दर्शन के अनुसार समस्त सृष्टि का निर्माण दो तत्वों प्रकृति तथा पुरुष से हुई है जिसमें प्रकृति जड़ तत्व तथा पुरुष चेतन तत्व जिसमें से प्रकृति के द्वारा प्राणियों के स्थूल शरीर का तथा पुरुष के द्वारा मनुष्य के सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है दोनों मिलकर कारण शरीर बनाते इसी से समस्त कार्य सम्पन्न होते हैं | व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य है प्रकृति तथा पुरुष को अलग अलग करके पुरुष तत्व को परमपुरुष में समाहित कर देना |

गीता के अनुसार पुरुष तीन प्रकार के होते हैं – क्षर, अक्षर तथा पुरुषोत्तम |
जिसमें क्षर पुरुष के अंतर्गत समस्त नश्वर संसार की समाविष्टि है, अक्षर के अधीन जो अनश्वर है अर्थात जीवात्मा का समावेश है जबकि पुरुषोत्तम के अंतर्गत वह तत्व आता है जो क्षर और अक्षर दोनों से परे है जिससे दोनों की उत्पत्ति हुई है अर्थात जो परमात्म तत्व है |
संस्कृत व्याकरण में तीन प्रकार के पुरुष का प्रयोग होता है प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष | जहाँ और प्रथम पुरुष उसके लिए जो सम्वाद में उपस्थित नहीं है, मध्यम पुरुष उसके लिए जिससे सम्वाद किया जा रहा है तथा उत्तम पुरुष उसके लिए जो सम्वाद बोल रहा है |

पुरुष के गुण को पौरुष कहा गया है किंतु पौरुष का तात्पर्य कहीं भी बल प्रदर्शन मात्र नहीं है आताताई बन जाना पौरुष नहीं है, किसी अन्य पर चाहे वे बाल, वृद्ध हों अथवा नारी हों उनपर अनावश्यक बल का प्रदर्शन पौरुष नहीं है | हमारे लोकनायक रहे और ईश्वर के रूप में पूजनीय भगवान राम ने इन विषयों पर सुंदर प्रतिमान स्थापित किये हैं | उन्होंने सदैव पीड़ितों की सेवा और दुष्टों को दंड दिया जाना ही पौरुष बताया है | मैं जहाँ पैदा हुआ हूँ कहा जाता है मैं क्षत्रिय हूँ, मुझे बार बार उलाहना भी मिलती है की मांसाहार नही करते कैसे क्षत्रिय हो, टैक्सी वाले को पूरा किराया दे दिया कैसे क्षत्रिय हो ? शांति की बात करते हो कैसे क्षत्रिय हो ? जैसी अनेक बातें होती है पर वास्तविकता तो यह है किसी भी पुरुष का क्षत्रिय का ये कार्य नहीं की वो बेवजह किसी को कष्ट दे , लोगों के अधिकारों का अपहरण करे | उसका काम रक्षा तथा सेवा करना समाज की राष्ट्र की और मानवता की |

शिव


शब्द मीमांसा २३

शब्द – शिव

शब्द सम्प्रेषक – रचना शर्मा जी |

दिनांक – २३/०२/२०१८

सबसे पहले मैं इस शब्द पर मेरी बात रखने के लिए मुझे प्रेरित करने वाले को हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करना चाहता हूँ क्योकि इस शब्द में मेरा जीवन दर्शन निहित है | मेरे समस्त कार्यों की प्रेरणा तथा मेरे शब्दों का स्रोत भी यही शब्द है या यूँ कहें की मेरा स्रष्टा यही शब्द है | जब मैं किसी देव या उनके विग्रह की बात करता हूँ मेरा तात्पर्य सिर्फ उनकी कृपा प्राप्त करने अथवा उनके पूजन मात्र से नही होता है मेरा मूल आशय होता है उनके उस स्वरूप से प्राप्त होने वाले दर्शन और उनके हमारी सृष्टि के कल्याण में होने वाले प्रयोग से होता है | आज हम बात करते हैं महादेव शिव की विषय बहुत बड़ा है इसलिए प्रयास होगा की संक्षेप में ही वर्णन का प्रयास करूंगा |

शिव शब्द का अर्थ – शिव शब्द की उत्पत्ति “शि” से हुई है जिसके दो अर्थ हैं प्रथम अर्थ में “जिसमें सब कुछ निहित है” तथा द्वितीय अर्थ में इसका अर्थ है “सृजन” | शिव शब्द का द्वितीय वर्ण है “व” जो की अमृत का बीज है अर्थात जो अमृत है इसका अर्थ है इसका एक और है “कल्याण” अर्थात शिव शब्द का शाब्दिक अर्थ है “जो समस्त चराचर जगत के लिए अमृत की तरह कल्याणकारी है |”  शिव शब्द की यही अवधारण भगवान शिव के मूल रूप को व्याख्यायित करत हैं |

शिव का स्वरूप – मेरी तुच्छ बुद्धि के अनुसार शिव का जो स्वरूप है वो कुछ इस तरह है | कपूर की तरह गौर वर्ण हैं अर्थात जो दिखने में ही आनन्ददायक है | शिव के मस्तक पर विराजित होने वाला चन्द्र इस बात का परिचायक है की शिव की उत्पत्ति समय की उत्पत्ति से पूर्व है | भारतीय काल गणना में चन्द्र को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है भारतीय काल गणना उन्हीं से प्रारम्भ होतीहै अतैव शिव समय से परे हैं वो समय को धारण करते हैं |

भगवान शिव ऐसे देव हैं जिनके पास तीन नेत्र है इसी कारण उन्हें त्रयम्बक भी कहा जाता है इसका एक और अर्थ होता है तीनों लोकों की माता अर्थात जिनसे तीनों लोकों की उत्पत्ति हुई है | तृतीय नेत्र प्रतीक है ज्ञान का जिस से हम काम ( असंगत इच्छाओं) को भस्म कर सकते हैं | भगवान शिव अपने समस्त शरीर पर भस्म का लेपन करते हैं यह भस्म श्मशान की होती है जो की प्रतीक है जीवन के अंत की अर्थात जब समस्त संसार का अंत हो जाता है तब भी ये विद्यमान रहते हैं |
भगवान शिव की जटा में गंगा विराजती है गंगा जो की समस्त संसार का कल्याण करती है किन्तु उनका वेग संसार सह सके इसलिए शिव उन्हें धारण करते हैं अपनी जटा में अर्थात कोई कल्याणकारी वस्तु है उससे होने वाली हानि को शून्य करते हैं |

भगवान शिव का कंठ नीला है इसलिए उन्हें इसलिए नीलकंठ कहते हैं उनका कंठ नीला इसलिए है क्युकी संसार के कल्याण के लिए सागर मंथन से उपजे हुए विष को ग्रहण किया और उसे कंठ में धारण किया न तो उसे उदर में जाने दिया न मस्तिष्क में अर्थात वो विष न तो संसार को ही कष्ट दे सके न ही स्वयं शिव को |

भगवान शिव बाघम्बर पर विराजमान हैं बाघ को हिंसक पशु माना गया है ये प्रतीक बताता है की विश्व में उत्पन्न होने वाली समस्त हिंसाओ का समन भगवान शिव करते हैं और प्राणियों कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं | महादेव के गले पर सांप को स्थान मिला है जो की प्रतीक है शिव द्वारा किसी के स्वभाव के आधार पर भेदभाव न करने का |

भगवान शिव के अस्त्रों में उनके हाथ में त्रिशूल है जो की प्रतीकहै तीन गुणों (सत, रज तथा तम) का तथा साथ डमरू धारण करते हैं जो की नाद का प्रतीक है तथा वे विभिन्न कलाओं के जन्मदाता है शब्दों तथा नाट्यशास्त्र आदि के जन्मदाता हैं | भगवान शिव के वाहन हैं नंदी जो की एक बैल हैं तथा जिनका मुख वानर जैसा है यह भगवान शिव को पशुपति बनाता है |

शिव के नाम –
शिव – समस्त प्राणियों हेतु कल्याणकारी |
नीलकंठ – विष को कंठ में  धारण करने वाले हृदय तथा मस्तिष्क पर विष का प्रभाव न पड़ने देने वाले ताकी आदि से अंत तक कल्याणकारी रहे तथा दोषियों को दण्डित करने हेतु विष भी आवश्यक |
शर्व – शर्व का अर्थ होता है जो मारता हो या नाश करता हो | अर्थात जो समस्त अन्धकार का नाश करता है |
बभ्रु – बभ्रु का अर्थ होता है लाल रंग अर्थात अरुण जिसका अर्थ है सूर्य अर्थात जो सूर्य में है वही बभ्रु है |
महेश्वर माया के अधीश्वर अर्थात माया को धारण करने वाले , माया उसे कहते हैं जो है तो किन्तु क्षणिक है |

शम्भू जो स्वयं उत्पन्न हुआ है इसी कारण इन्हें निर्रीति कहा गया है अर्थात जिनका जिनका जन्म ऋत (समस्त व्यवस्था )से पूर्व हुआ हो |

पिनाकी पिनाक धनुष धारण करने वाले |

शशिशेखर चंद्रमा अर्थात समय को धारण करने वाले |

वामदेव अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले |

विरूपाक्ष विचित्र अथवा तीन आंख वाले |

कपर्दी जटा धारण करने वाले |

नीललोहित नीले और लोहित अर्थात ताबें जैसा रंग धारण करने वाले |

शंकर शुभं करोति यस्य सःअर्थात जो सबका मंगल करते हैं |

शूलपाणी हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले |

षटवांगी- वेदांग के छः अंगो को धारण करने वाले |

विष्णुवल्लभ भगवान विष्णु के अति प्रिय |

शिपिविष्ट सीप में निवास करने वाले |

अंबिकानाथ- देवी भगवती के पति |

श्रीकण्ठ सुंदर कण्ठ वाले |

भक्तवत्सल भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले |

भव अर्थात समस्त संसार जिसमें व्याप्त है |

त्रिलोकेश- तीनों लोकों के स्वामी |

शितिकण्ठ सफेद कण्ठ वाले |

शिवाप्रिय पार्वती के प्रिय |

उग्र अत्यंत उग्र रूप वाले |

कपाली कपाल धारण करने वाले |

कामारी कामदेव के शत्रु, अंधकार को हरने वाले | वैसे कामदेव सृष्टि के निर्माण का आधार है किन्तु 
जब उसके द्वारा सृष्टि में नैतिकता का पतन होने लगे तो भगवान शिव उसे भी नष्ट कर देते हैं |

सुरसूदन देवताओं का उद्धार करने वाले |

गंगाधर गंगा को जटाओं में धारण करने वाले |

ललाटाक्ष जिनके भाल पर ऑंखें हैं |

महाकाल जो सृष्टि के अंत में कल का भी अंत करते है |

कृपानिधि करुणा के सागर |

भीम भयंकर या रुद्र रूप वाले |

परशुहस्त हाथ में फरसा धारण करने वाले ( खासकर दक्षिण भारतीय विग्रहों में ) |

मृगपाणी पशुओ को धारण करने वाले इसी कारण इन्हें पूषण भी कहा जाता है |

जटाधर जटा रखने वाले |

कैलाशवासी कैलाश पर निवास करने वाले | 

कवची कवच धारण करने वाले |

कठोर अत्यंत मजबूत देह वाले |

त्रिपुरांतक त्रिपुरासुर का विनाश करने वाले | तीनो पुर लौहपुर ( शक्ति के दर्प का प्रतीक ), रजतपुर 
(रूप के दर्प) तथा स्वर्णपुर ( धन के दर्प का प्रतीक) |

वृषांक बैल-चिह्न की ध्वजा वाले |

वृषभारूढ़ बैल पर सवार होने वाले |

भस्मोद्धूलितविग्रह भस्म लगाने वाले |

सामप्रिय सामवेद के मन्त्र जिन्हें अत्यंत प्रिय हैं | रावण ने भी सामवेद के मन्त्रों से भगवान शिव की 
अराधना की थी |

स्वरमयी सातों स्वरों में निवास करने वाले |

त्रयीमूर्ति तीनों वेदों में निवास करने वाले |

अनीश्वर जो स्वयं ही सबके स्वामी है |

सर्वज्ञ सब कुछ जानने वाले |

परमात्मा सब आत्माओं में सर्वोच्च |

सोमसूर्याग्निलोचन चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आंख वाले |

हवि आहुति रूपी द्रव्य वाले |

यज्ञमय यज्ञ स्वरूप वाले |

सोम जो उमा के साथ रहता हो |

पंचवक्त्र पांच मुख वाले |

सदाशिव नित्य कल्याण रूप वाले |

विश्वेश्वर- विश्व के ईश्वर |

वीरभद्र गम्भीर स्वभाव वाले वीर |

गणनाथ गणों के स्वामी |

प्रजापति प्रजा का पालन- पोषण करने वाले |

हिरण्यरेता हिरण्य अर्थात स्वर्ण जैसे तेज वाले |

दुर्धुर्ष किसी से न हारने वाले |

गिरीश पर्वतों के स्वामी |

गिरिश्वर पर्वतों के अधिपति |

अनघ जो पाप से परे है |

भुजंगभूषण सांपों व नागों के आभूषण धारण करने वाले |

भर्ग पापों का नाश करने वाले |

गिरिधन्वा मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले |

गिरिप्रिय पर्वत को प्रेम करने वाले |

कृत्तिवासा गजचर्म पहनने वाले |

पुराराति पुरों का नाश करने वाले |

भगवान् सर्वसमर्थ ऐश्वर्य संपन्न |

प्रमथाधिप जो  सबका प्रथम शासक है |

मृत्युंजय मृत्यु को जीतने वाले |

सूक्ष्मतनु सूक्ष्म शरीर वाले |

जगद्व्यापी- जगत में व्याप्त होकर रहने वाले |

जगद्गुरू जगत के गुरु |

व्योमकेश आकाश जिनके बाल हैं |

महासेनजनक कार्तिकेय (देवों के सेनापति) के पिता |

चारुविक्रम सुन्दर पराक्रम वाले |

रूद्र उग्र रूप वाले |

भूतपति पंचमहाभूतों के स्वामी |

स्थाणु स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले |

अहिर्बुध्न्य कुण्डलिनी- धारण करने वाले |

दिगम्बर आकाश रुपी वस्त्र को धारण करने वाले |

अष्टमूर्ति आठ रूप वाले |

अनेकात्मा अनेक आत्मा वाले |

सात्त्विक- सत्व गुण वाले |

शुद्धविग्रह दिव्यमूर्ति वाले |

शाश्वत नित्य रहने वाले |

खण्डपरशु टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले |

अज जन्म रहित |

पाशविमोचन बंधन से छुड़ाने वाले |

मृड सुखस्वरूप वाले |

पशुपति पशुओं के स्वामी |

देव स्वयं प्रकाश रूप |

महादेव देवों के देव |

अव्यय कभी समाप्त न होने वाले |

हरि विष्णु समरूपी |

पूषदन्तभित् पूषा के दांत उखाड़ने वाले |

अव्यग्र व्यथित न होने वाले |

दक्षाध्वरहर दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले |

हर पापों को हरने वाले |

भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले |

अव्यक्त - इंद्रियों द्वारा प्रकट न किये जा सकने योग्य |

सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले |

सहस्रपाद - अनंत पैर वाले |

अपवर्गप्रद स्वर्ग से भी उच्च पद प्रदान करने वाले |

अनंत - देशकाल वस्तु रूपी परिच्छेद से रहित |

तारक - तारने वाले |

परमेश्वर - प्रथम ईश्वर |