#शब्द_मीमांसा #17
शब्द - अहंकार
शब्द संप्रेषक - मनीष जैन
दिनाँक - 28/09/2017
हमारी संस्कृति कहा गया है दान लेने वाला बड़ा होता है और देने वाला छोटा । दान पैर छूकर आदाता को दिया जाता है । हमारे प्राचीन ग्रन्थों कवि ने स्वयं को बार बार मन्दमति और अज्ञानी कहा है जबकि उसके शब्दों की गूढ़ता स्वयं को बड़ा विद्वान समझने वाले भी नहीं समझ पाते है । श्रीभगवान ने अकर्ता होकर कर्म करने की सलाह दी है । इन सब का एक मात्र कारण है कि व्यक्ति को स्वयं के कार्यों पर अहंकार न हो जाये और लोक कल्याण में बाधा उत्पन्न कर दे । तुलसीदास जी ने कहा है -
क्रोध पाप का मूल है । क्रोध मूल अभिमान ।।
अर्थात जब व्यक्ति में अभिमान आ जाता है तो उसे क्रोध आता है और क्रोध पाप का कारण बनता है अर्थात अहंकार व्यक्ति को पतित कर देता है । अहंकारी व्यक्ति की गति रावण जैसी होती है -
एक लख पूत सवालख नाती । ता रावण घर दिया न बाती ।।
सिर्फ रावण ही नहीं अपितु जब द्वारिका के लोगों को अहंकार हुआ अपनी अपराजेयता का तो उनकी बुद्धि भ्रष्ट हुई और उनका भी नाश हो गया जोकि स्वयं श्रीभगवान के बन्धु-बांधव और प्रजा थे ।
अहंकार शब्द की उत्पत्ति अहं शब्द से और अहं शब्द की उत्पत्ति "अह्" शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है "प्रशंसा " और अहं शब्द का अर्थ होता है मैं अथवा स्व अर्थात जब व्यक्ति स्वयं के आकार को ही विश्व मनाने लगता है यानी जो कुछ है वो स्वयं ही है तो का जाता है कि उसे अहंकार हो गया है ।
दर्शन के अनुसार चित्त का एक घटक योग है अहंकार । मन, बुद्धि तथा अहंकार से चित्त बनाता है । अहंकार द्वारा अहं का ज्ञान होता है । अहंकार तीन प्रकार का होता है सात्विक, रजस तथा तामस ।
सात्विक अहंकार से अधिष्ठाता देवता और मन की उत्पत्ति हुई है । रजस से दस इंद्रियों (पांच कर्मेन्द्रियों तथा पांच ज्ञानेन्द्रियाँ) की उत्पत्ति हुई है तथा तामस अहंकार से पांच सूक्ष्म महाभूतों की उत्पत्ति हुई है । अर्थात जब व्यक्ति को अपने अधिष्ठाता पर अभिमान हो तो वह सात्विक अहंकार कहलाता है तथा जब व्यक्ति को अपने इंद्रियों पर घमण्ड हो तो उसे रजस कहते हैं एवं यदि व्यक्ति अन्य भौतिक वस्तुओं का अहंकार हो जाये तो उसे तामस अहंकार की संज्ञा दी गई है ।
वेदांत दर्शन में अहंकार को एक अभिमानात्मक वृति माना गया है । यहां अहंकार शरीरादि विषयो के मिथ्या ज्ञान को कहा गया है । वैष्णव दर्शन के व्यूह सिद्धांत में अनिरुद्ध को अहंकार कहा गया है ।
संख्या दर्शन में दो मूल तत्व माने गए जो एक दूसरे से अलग होते हैं जिनमें प्रथम है पुरुष अर्थात आत्मा और द्वितीय है प्रकृति । प्रकृति के तीन गुण होते है - सत्व, रज तथा तम । प्रलयकाल में ये तीनों सन्तुलित होते हैं किन्तु जब पुरुष की उपस्थिति में इनका सन्तुलन भंग होता है तो प्रकृति से बुध्दि (महान) का जन्म होता है जो सोचने वाला कार्य करती है जिसमें सत्व की मात्रा विशेष होती है । बुद्धि से अहंकार का जन्म होता है । अहंकार से मनस तथा पांच ज्ञानेन्द्रियो की उत्पत्ति होतीहै फिर जिनसे पांच कर्मेन्द्रियों और पांच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है । अर्थात अहंकार से आसक्ति हमारी इंद्रियों में स्थित हो जाती है ।
शब्द - अहंकार
शब्द संप्रेषक - मनीष जैन
दिनाँक - 28/09/2017
हमारी संस्कृति कहा गया है दान लेने वाला बड़ा होता है और देने वाला छोटा । दान पैर छूकर आदाता को दिया जाता है । हमारे प्राचीन ग्रन्थों कवि ने स्वयं को बार बार मन्दमति और अज्ञानी कहा है जबकि उसके शब्दों की गूढ़ता स्वयं को बड़ा विद्वान समझने वाले भी नहीं समझ पाते है । श्रीभगवान ने अकर्ता होकर कर्म करने की सलाह दी है । इन सब का एक मात्र कारण है कि व्यक्ति को स्वयं के कार्यों पर अहंकार न हो जाये और लोक कल्याण में बाधा उत्पन्न कर दे । तुलसीदास जी ने कहा है -
क्रोध पाप का मूल है । क्रोध मूल अभिमान ।।
अर्थात जब व्यक्ति में अभिमान आ जाता है तो उसे क्रोध आता है और क्रोध पाप का कारण बनता है अर्थात अहंकार व्यक्ति को पतित कर देता है । अहंकारी व्यक्ति की गति रावण जैसी होती है -
एक लख पूत सवालख नाती । ता रावण घर दिया न बाती ।।
सिर्फ रावण ही नहीं अपितु जब द्वारिका के लोगों को अहंकार हुआ अपनी अपराजेयता का तो उनकी बुद्धि भ्रष्ट हुई और उनका भी नाश हो गया जोकि स्वयं श्रीभगवान के बन्धु-बांधव और प्रजा थे ।
अहंकार शब्द की उत्पत्ति अहं शब्द से और अहं शब्द की उत्पत्ति "अह्" शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है "प्रशंसा " और अहं शब्द का अर्थ होता है मैं अथवा स्व अर्थात जब व्यक्ति स्वयं के आकार को ही विश्व मनाने लगता है यानी जो कुछ है वो स्वयं ही है तो का जाता है कि उसे अहंकार हो गया है ।
दर्शन के अनुसार चित्त का एक घटक योग है अहंकार । मन, बुद्धि तथा अहंकार से चित्त बनाता है । अहंकार द्वारा अहं का ज्ञान होता है । अहंकार तीन प्रकार का होता है सात्विक, रजस तथा तामस ।
सात्विक अहंकार से अधिष्ठाता देवता और मन की उत्पत्ति हुई है । रजस से दस इंद्रियों (पांच कर्मेन्द्रियों तथा पांच ज्ञानेन्द्रियाँ) की उत्पत्ति हुई है तथा तामस अहंकार से पांच सूक्ष्म महाभूतों की उत्पत्ति हुई है । अर्थात जब व्यक्ति को अपने अधिष्ठाता पर अभिमान हो तो वह सात्विक अहंकार कहलाता है तथा जब व्यक्ति को अपने इंद्रियों पर घमण्ड हो तो उसे रजस कहते हैं एवं यदि व्यक्ति अन्य भौतिक वस्तुओं का अहंकार हो जाये तो उसे तामस अहंकार की संज्ञा दी गई है ।
वेदांत दर्शन में अहंकार को एक अभिमानात्मक वृति माना गया है । यहां अहंकार शरीरादि विषयो के मिथ्या ज्ञान को कहा गया है । वैष्णव दर्शन के व्यूह सिद्धांत में अनिरुद्ध को अहंकार कहा गया है ।
संख्या दर्शन में दो मूल तत्व माने गए जो एक दूसरे से अलग होते हैं जिनमें प्रथम है पुरुष अर्थात आत्मा और द्वितीय है प्रकृति । प्रकृति के तीन गुण होते है - सत्व, रज तथा तम । प्रलयकाल में ये तीनों सन्तुलित होते हैं किन्तु जब पुरुष की उपस्थिति में इनका सन्तुलन भंग होता है तो प्रकृति से बुध्दि (महान) का जन्म होता है जो सोचने वाला कार्य करती है जिसमें सत्व की मात्रा विशेष होती है । बुद्धि से अहंकार का जन्म होता है । अहंकार से मनस तथा पांच ज्ञानेन्द्रियो की उत्पत्ति होतीहै फिर जिनसे पांच कर्मेन्द्रियों और पांच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है । अर्थात अहंकार से आसक्ति हमारी इंद्रियों में स्थित हो जाती है ।