#शब्द_मीमांसा 18
शब्द -राक्षस
शब्द प्रेरणा -सोशल मीडिया
दिनाँक - 08/10/2017
पिछले कुछ दिनों से एक शब्द काफी प्रचलन में रहा है मुख्यतः विजयादशमी के उपरांत रावण का महिमामंडन करते हुए उसे रक्ष संस्कृति का जनक आदि बताना ।
राक्षस रजोगुण का द्वितीय विभाग है उसके छः विभागों में से । जैसा कि आप पूर्व में पढ़ चुके हैं गीता में श्रीभगवान ने कहा है जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाले के स्वभाव का है, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ।
चरक संहिता के पंचम अध्याय में राक्षस को राजस गुणी बताते हुए बताया गया है कि जो असहनशील, अकारण कुपित होने वाला, छिद्र अर्थात शत्रु के कमजोर स्थान पर वार करने वाला, क्रूर, भोजन में अत्यधिक रुचि लेने वाला, मांस का बहुत प्यारा, खूब सोने वाला और परिश्रम करने वाला , इर्ष्याशील हो उसे "राक्षस" समझें ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -
मानहिं मातु पिता नहिं देवा , साधुन ते करवावहि सेवा ।
जिन्ह के यह आचरन भवानी तेहि जानहु निशिचर खल कामी ।।
यह भी ध्यातव्य है कि दैत्य, असुर और राक्षस अलग अलग हैं उनके गुण तथा उत्पत्ति में भी अंतर है । अब बात करते हैं राक्षसों की उत्पत्ति और इनके वंशावली की ।
बाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण में भगवान राम की जिज्ञासा पर महर्षि अगस्त्य राक्षसों की उत्पत्ति की कथा का वर्णन करते हैं -
ब्रह्मा जी ने मानवों की रक्षा के लिए कुछ प्राणियों का निर्माण किया और कहा जाओ तुम मानवों की यत्नपूर्वक रक्षा करो । उनमें से कुछ क्षुधा पीड़ित प्राणियों ने कहा "रक्षाम:" अर्थात हम रक्षा करते हैं जिन्हें राक्षस नाम दिया गया कुछ ने कहा "यक्षाम:" अर्थात हम उत्तरोत्तर वृद्धि करते हैंउन्हेँ ब्रह्मा जी ने यक्ष नाम दिया ।
इन राक्षसों में दो भाई हेति तथा प्रहेति हुए दोनो मधु कैटभ की तरह शत्रुनाशकारी थे । प्रहेति धार्मिक होने के कारण तप करने चला गया । किन्तु हेति अपने विवाह का प्रयत्न करने लगा ।
हेति इस प्रकार विवाह की इच्छा लेकर स्वयं ही काल के सम्मुख पहुंच गया और उससे प्रार्थना की तथा काल की बहन "भया" जो कि महाडरावनी थी उससे विवाह कर लिया तथा "विद्युत्केश" नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । विद्युत्केश का विवाह सन्ध्या की पुत्री "सालकटंकटा" से हुआ । उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सुकेश था किंतु जन्म होते ही पुत्र को अकेला छोड़कर वह पुनः सम्भोग की इच्छा से अपने पति विद्युत्केश के पास पहुँच गयी । बालक अकेला पड़ा भूख आदि के कारण रोने लगा तो वहां से गुजरते हुए देवी पार्वती के कहने पर महादेव ने सुकेश को तुंरन्त उसकी माँ की उम्र का कर दिया तथा उसे आकाश मार्ग से गमन करने के लिए एक विमान भी दिया और माता पार्वती ने वरदान दिया कि राक्षसियों के गर्भ धारण करते ह् सन्तान जन्म लेगी तथा जन्म लेते ही वो अपनी माता की उम्र की हो जाएगी ।
सुकेश का विवाह ग्रामणी नामक गन्धर्व की कन्या देववती से हुआ जिससे तीन संताने क्रमशः माल्यवान, सुमाली तथा माली का जन्म हुआ । तीनों ने मेरु पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया तथा अजेय होने का वरदान प्राप्त किया । अजेय होने के उपरांत इन्होंने देवों, असुरों,मानवो तथा ऋषियों को सताना प्रारम्भ कर दिया । उनकी प्रार्थना पर विश्वकर्मा ने त्रिकूट पर्वत पर लंका नामक नगरी का निर्माण किया । इन तीनों का विवाह नर्मदा नामक एक गन्धरवी की तीन कन्याओं से हुआ ।
माल्यवान की पत्नी का नाम सुंदरी था जिससे बज्रमुष्टि, विरुपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त तथा उन्मत्त नामक सात पुत्रो और अनला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई ।
सुमाली की पत्नी का नाम केतुमती था जिससे प्रहस्त, कम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्व, संह्रादि, प्रघस और भासकर्ण नामक पुत्रो और कुंभीनशी, कैकसी, राका और पुष्पोत्कटा नामक पुत्रियों का जन्म हुआ ।
माली का विवाह वसुधा नामक गन्धरवी से हुआ जिसके अनल, अनिल, हर तथा सम्पाती नामक चार पुत्र हुए जो आगे चलकर विभीषण के मंत्री बने ।
इनके अत्यचारों से पीड़ित होकर सारे देवगण प्राणियों सहित भगवान शिव के पास गए इन्होंने कहा ये राक्षस मुझसे अवध्य है किंतु भगवान विष्णु इन्हें मार सकते हैं उनसे अनुनय कीजिये । एक घोर युद्ध में भगवान विष्णु ने समस्त राक्षसों को पाताल खदेड़ दिया और माली का वध किया । सुमाली को राजा बनाकर राक्षस गण सही अवसर की प्रतीक्षा करने लगे ।
भगवान विष्णु द्वारा रसातल खदेड़े जाने के कुछ समय के उपरांत सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ जो कि कमल त्यागे हुए लक्ष्मी की तरह सुंदर थी को लेकर पृथ्वी लोक पर भ्रमण करने निकला , भ्रमण करते हुए उसने देखा कि अत्यंत तेजस्वी कुबेर पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर अपने पिता पुलत्स्य पुत्र विश्रवा से मिलने आये थे । वह यह सब देखकर पुनः रसातल लौट गया और विचार करने लगा कि यदि मेरी पुत्री का विवाह विश्रवा से हो जाये और उससे पुत्रजन्म हो तो वे भी कुबेर की तरह ही तेजस्वी होंगे । यह विचार करके उसने अपनी पुत्री कैकसी को विश्रवा के पास जाने के लिए प्रेरित किया ।
कैकसी जब मुनि विश्रवा के पास पहुँची तो वे सन्ध्या (प्रदोष काल) के समय अग्निष्टोम कर रहे थे । कैकसी उनके सामने खड़ी हो गयी और अपने पैरों की तरफ देखते हुए पैर के अंगूठे से जमीन को कुरेदने लगी । जब विश्रवा ने उसके बारे में और उसके आने का प्रयोजन पूछा तो उसने कहा कि वो सुमाली की पुत्री कैकसी है तथा वो अपना हेतु स्वयं नहीं बताएगी उसे वे अपनी तपश्चर्या द्वारा स्वयं ज्ञात कर लें । विश्रवा ने ध्यान लगाकर उसका हेतुक जाना और बोले हे महाभागे ! मुझे ज्ञात हो गया है कि तुम पुत्र प्राप्ति हेतु मेरे पास आई हो किन्तु प्रदोष काल में आने के कारण तुम्हारे पुत्र बड़े क्रूरकर्मा होंगे, उन भयंकर राक्षसों की सूरत भी भयानक होगी और उनकी प्रीति भी क्रूरकर्मा बन्धु बांधवो से होगी । इसपर कैकसी बोली हे भगवन मुझे आपसे ऐसे दुराचारी पुत्र नहीं चाहिए मुझपर कृपा कीजिये । ऐसा सुनकर विश्रवा बोले हे शुभनने! अच्छा तेरा अंतिम पुत्र मेरे वंशानुरूप धर्मात्मा होगा ।
इस प्रकार कुछ काल बाद उस कन्या ने बड़ा भयंकर और वीभत्स राक्षस को जन्म दिया उसके दस सिर थे और बड़े बड़े दांत थे , उसके शरीर का रंग काला तथा आकर पहाड़ की तरह था । उसके होंठ लाल थे तथा बीस भुजाएं थी । उसका मुंह बड़ा तथा बाल चमकीले थे । उसके जन्म लेते ही अनेक अपशकुन हुए । उसके पितामह ने उसका नाम दशानन रखा ।
तदन्तर भीमकाय कुम्भकर्ण का जन्म हुआ उसके अंतर पर बुरी सूरत वाली सूर्पणखा का जन्म हुआ । उसके उपरांत धर्मात्मा विभीषण का जन्म हुआ जिनके जन्म पर अनेक शुभ संकेत हुए ।
तदन्तर कैकसी के द्वारा प्रेरित होने पर कुबेर की तरह ऐश्वर्य प्रप्त करने हेतु तीनो भाइयो ने गोकर्ण आश्रम में कठोर तप किया और ब्रह्मा जी से लम्बी आयु और अजेयता प्राप्त की । विश्रवा के कहने पर कुबेर ने रावण को लंका दे दी और स्वयं जाकर कैलाश पर्वत पर पुरी बसाकर रहने लगे । इस प्रकार लंका में राक्षसों की पुनः स्थापना हुई ।
रावण का विवाह मय दानव और हेमा नाक की अप्सरा की पुत्री मंदोदरी से हुआ , कुम्भकर्ण का पाणिग्रहण वैरोचन की पौत्री तथा बलि की पुत्री बज्रज्वाला से हुआ और गन्धर्व राज शैलूष की पुत्री सरमा का विवाह विभीषण से हुआ ।
शब्द -राक्षस
शब्द प्रेरणा -सोशल मीडिया
दिनाँक - 08/10/2017
पिछले कुछ दिनों से एक शब्द काफी प्रचलन में रहा है मुख्यतः विजयादशमी के उपरांत रावण का महिमामंडन करते हुए उसे रक्ष संस्कृति का जनक आदि बताना ।
राक्षस रजोगुण का द्वितीय विभाग है उसके छः विभागों में से । जैसा कि आप पूर्व में पढ़ चुके हैं गीता में श्रीभगवान ने कहा है जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाले के स्वभाव का है, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ।
चरक संहिता के पंचम अध्याय में राक्षस को राजस गुणी बताते हुए बताया गया है कि जो असहनशील, अकारण कुपित होने वाला, छिद्र अर्थात शत्रु के कमजोर स्थान पर वार करने वाला, क्रूर, भोजन में अत्यधिक रुचि लेने वाला, मांस का बहुत प्यारा, खूब सोने वाला और परिश्रम करने वाला , इर्ष्याशील हो उसे "राक्षस" समझें ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -
मानहिं मातु पिता नहिं देवा , साधुन ते करवावहि सेवा ।
जिन्ह के यह आचरन भवानी तेहि जानहु निशिचर खल कामी ।।
यह भी ध्यातव्य है कि दैत्य, असुर और राक्षस अलग अलग हैं उनके गुण तथा उत्पत्ति में भी अंतर है । अब बात करते हैं राक्षसों की उत्पत्ति और इनके वंशावली की ।
बाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण में भगवान राम की जिज्ञासा पर महर्षि अगस्त्य राक्षसों की उत्पत्ति की कथा का वर्णन करते हैं -
ब्रह्मा जी ने मानवों की रक्षा के लिए कुछ प्राणियों का निर्माण किया और कहा जाओ तुम मानवों की यत्नपूर्वक रक्षा करो । उनमें से कुछ क्षुधा पीड़ित प्राणियों ने कहा "रक्षाम:" अर्थात हम रक्षा करते हैं जिन्हें राक्षस नाम दिया गया कुछ ने कहा "यक्षाम:" अर्थात हम उत्तरोत्तर वृद्धि करते हैंउन्हेँ ब्रह्मा जी ने यक्ष नाम दिया ।
इन राक्षसों में दो भाई हेति तथा प्रहेति हुए दोनो मधु कैटभ की तरह शत्रुनाशकारी थे । प्रहेति धार्मिक होने के कारण तप करने चला गया । किन्तु हेति अपने विवाह का प्रयत्न करने लगा ।
हेति इस प्रकार विवाह की इच्छा लेकर स्वयं ही काल के सम्मुख पहुंच गया और उससे प्रार्थना की तथा काल की बहन "भया" जो कि महाडरावनी थी उससे विवाह कर लिया तथा "विद्युत्केश" नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । विद्युत्केश का विवाह सन्ध्या की पुत्री "सालकटंकटा" से हुआ । उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सुकेश था किंतु जन्म होते ही पुत्र को अकेला छोड़कर वह पुनः सम्भोग की इच्छा से अपने पति विद्युत्केश के पास पहुँच गयी । बालक अकेला पड़ा भूख आदि के कारण रोने लगा तो वहां से गुजरते हुए देवी पार्वती के कहने पर महादेव ने सुकेश को तुंरन्त उसकी माँ की उम्र का कर दिया तथा उसे आकाश मार्ग से गमन करने के लिए एक विमान भी दिया और माता पार्वती ने वरदान दिया कि राक्षसियों के गर्भ धारण करते ह् सन्तान जन्म लेगी तथा जन्म लेते ही वो अपनी माता की उम्र की हो जाएगी ।
सुकेश का विवाह ग्रामणी नामक गन्धर्व की कन्या देववती से हुआ जिससे तीन संताने क्रमशः माल्यवान, सुमाली तथा माली का जन्म हुआ । तीनों ने मेरु पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया तथा अजेय होने का वरदान प्राप्त किया । अजेय होने के उपरांत इन्होंने देवों, असुरों,मानवो तथा ऋषियों को सताना प्रारम्भ कर दिया । उनकी प्रार्थना पर विश्वकर्मा ने त्रिकूट पर्वत पर लंका नामक नगरी का निर्माण किया । इन तीनों का विवाह नर्मदा नामक एक गन्धरवी की तीन कन्याओं से हुआ ।
माल्यवान की पत्नी का नाम सुंदरी था जिससे बज्रमुष्टि, विरुपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त तथा उन्मत्त नामक सात पुत्रो और अनला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई ।
सुमाली की पत्नी का नाम केतुमती था जिससे प्रहस्त, कम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्व, संह्रादि, प्रघस और भासकर्ण नामक पुत्रो और कुंभीनशी, कैकसी, राका और पुष्पोत्कटा नामक पुत्रियों का जन्म हुआ ।
माली का विवाह वसुधा नामक गन्धरवी से हुआ जिसके अनल, अनिल, हर तथा सम्पाती नामक चार पुत्र हुए जो आगे चलकर विभीषण के मंत्री बने ।
इनके अत्यचारों से पीड़ित होकर सारे देवगण प्राणियों सहित भगवान शिव के पास गए इन्होंने कहा ये राक्षस मुझसे अवध्य है किंतु भगवान विष्णु इन्हें मार सकते हैं उनसे अनुनय कीजिये । एक घोर युद्ध में भगवान विष्णु ने समस्त राक्षसों को पाताल खदेड़ दिया और माली का वध किया । सुमाली को राजा बनाकर राक्षस गण सही अवसर की प्रतीक्षा करने लगे ।
भगवान विष्णु द्वारा रसातल खदेड़े जाने के कुछ समय के उपरांत सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ जो कि कमल त्यागे हुए लक्ष्मी की तरह सुंदर थी को लेकर पृथ्वी लोक पर भ्रमण करने निकला , भ्रमण करते हुए उसने देखा कि अत्यंत तेजस्वी कुबेर पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर अपने पिता पुलत्स्य पुत्र विश्रवा से मिलने आये थे । वह यह सब देखकर पुनः रसातल लौट गया और विचार करने लगा कि यदि मेरी पुत्री का विवाह विश्रवा से हो जाये और उससे पुत्रजन्म हो तो वे भी कुबेर की तरह ही तेजस्वी होंगे । यह विचार करके उसने अपनी पुत्री कैकसी को विश्रवा के पास जाने के लिए प्रेरित किया ।
कैकसी जब मुनि विश्रवा के पास पहुँची तो वे सन्ध्या (प्रदोष काल) के समय अग्निष्टोम कर रहे थे । कैकसी उनके सामने खड़ी हो गयी और अपने पैरों की तरफ देखते हुए पैर के अंगूठे से जमीन को कुरेदने लगी । जब विश्रवा ने उसके बारे में और उसके आने का प्रयोजन पूछा तो उसने कहा कि वो सुमाली की पुत्री कैकसी है तथा वो अपना हेतु स्वयं नहीं बताएगी उसे वे अपनी तपश्चर्या द्वारा स्वयं ज्ञात कर लें । विश्रवा ने ध्यान लगाकर उसका हेतुक जाना और बोले हे महाभागे ! मुझे ज्ञात हो गया है कि तुम पुत्र प्राप्ति हेतु मेरे पास आई हो किन्तु प्रदोष काल में आने के कारण तुम्हारे पुत्र बड़े क्रूरकर्मा होंगे, उन भयंकर राक्षसों की सूरत भी भयानक होगी और उनकी प्रीति भी क्रूरकर्मा बन्धु बांधवो से होगी । इसपर कैकसी बोली हे भगवन मुझे आपसे ऐसे दुराचारी पुत्र नहीं चाहिए मुझपर कृपा कीजिये । ऐसा सुनकर विश्रवा बोले हे शुभनने! अच्छा तेरा अंतिम पुत्र मेरे वंशानुरूप धर्मात्मा होगा ।
इस प्रकार कुछ काल बाद उस कन्या ने बड़ा भयंकर और वीभत्स राक्षस को जन्म दिया उसके दस सिर थे और बड़े बड़े दांत थे , उसके शरीर का रंग काला तथा आकर पहाड़ की तरह था । उसके होंठ लाल थे तथा बीस भुजाएं थी । उसका मुंह बड़ा तथा बाल चमकीले थे । उसके जन्म लेते ही अनेक अपशकुन हुए । उसके पितामह ने उसका नाम दशानन रखा ।
तदन्तर भीमकाय कुम्भकर्ण का जन्म हुआ उसके अंतर पर बुरी सूरत वाली सूर्पणखा का जन्म हुआ । उसके उपरांत धर्मात्मा विभीषण का जन्म हुआ जिनके जन्म पर अनेक शुभ संकेत हुए ।
तदन्तर कैकसी के द्वारा प्रेरित होने पर कुबेर की तरह ऐश्वर्य प्रप्त करने हेतु तीनो भाइयो ने गोकर्ण आश्रम में कठोर तप किया और ब्रह्मा जी से लम्बी आयु और अजेयता प्राप्त की । विश्रवा के कहने पर कुबेर ने रावण को लंका दे दी और स्वयं जाकर कैलाश पर्वत पर पुरी बसाकर रहने लगे । इस प्रकार लंका में राक्षसों की पुनः स्थापना हुई ।
रावण का विवाह मय दानव और हेमा नाक की अप्सरा की पुत्री मंदोदरी से हुआ , कुम्भकर्ण का पाणिग्रहण वैरोचन की पौत्री तथा बलि की पुत्री बज्रज्वाला से हुआ और गन्धर्व राज शैलूष की पुत्री सरमा का विवाह विभीषण से हुआ ।